________________ 500] [उत्तराध्ययनसूत्र स्वाध्याय आदि का स्वरूप-स्वाध्याय : तीन निर्वचन--(१) सुन्दर अध्ययन, (2) सुष्टु मर्यादा सहित जिसका अध्ययन किया जाता है, (3) शोभन मर्यादा-काल वेला छोड़ कर पौरुषी की अपेक्षा अध्ययन करना स्वाध्याय है।' वाचना : तीन अर्थ--(१) शास्त्र की वाचना देना-अध्यापन (पाठन) करना, (2) स्वयं शास्त्र बांचना-पढना, अथवा (3) गुरु या श्रुतधर से शास्त्र का अध्ययन करना / प्रतिपृच्छना-ली हुई शास्त्रवाचना या पूर्व-अधीत शास्त्र में किसी विषय पर शंका उत्पन्न होने पर गुरु आदि से परिवर्तना-यावृत्ति करना, पूछ कर समाहित किये या परिचित विषय का विस्मरण न हो, इसलिए उस सूत्र के पाठ, अर्थ आदि का गुणन करना, बार-बार स्मरण करना / अनुप्रेक्षा-परिचित और स्थिर सूत्रार्थ का बार-बार चिन्तन करना, नयी-नयी स्फुरणा होना / धर्मकथा--स्थिरीकृत एवं चिन्तत विषय पर धर्मोपदेश करना / श्रुताराधना- शास्त्र या सिद्धान्त की सम्यक् प्रासेवना। श्रुत को अनाशातना-ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, प्राप्तोपदेश एवं प्रागम, ये श्रुत के पर्यायवाची हैं / इनकी अाशातना-अवज्ञा न करना अनाशातना है / तीर्थधर्म का अवलम्बन :--सूत्र 20 में श्रुत की आशातना न करने वाला तीर्थधर्म का मालम्बन है / तीर्थ शब्द के अर्थ-(१) प्रवचन, (2) गणधर (3) चतुर्विधसंघ, तीर्थ शब्द के इन तीनों अर्थों के आधार पर तीन तीर्थधर्म के तीन अर्थ होते हैं--(१) प्रवचन का धर्म (स्वाध्याय करना), (2) गणधरधर्म-शास्त्र की कर्णोपकर्णगत शास्त्रपरम्परा को अविच्छिन्न रखना, और (3) श्रमणसंघ का धर्म / ' महापज्जवसाणे--महापर्यवसान--संसार का अन्त करना / कंखामोहणिज्जं : कांक्षामोहनीय-कांक्षामोहनीय मिथ्यात्व-मोहनीय का ही एक प्रकार है। व्यंजनलब्धि : तात्पर्य --पदानुसारिणीलब्धि या एक व्यंजन के आधार पर शेष व्यंजनों को उपलब्ध करने की शक्ति। 1. (क) अध्ययनम् अध्यायः, शोभन: अध्यायः स्वाध्याय: ।-पाव. 4 (ख) सुष्ठ, या मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः, ----स्थानांग 2 स्था, 2 उ, / (ग) सुष्ठ, प्रा मार्यादया-कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वा अध्यायः स्वाध्यायः / -धर्मग्रसंह अधि. 3 2. (क) वाचना–पाठनम्, (ख) पूर्वाधीतस्य सूत्रादेः शंकितादौ प्रश्नः पृच्छना, (ग) परिवर्तना-गुणनम्, (घ) अनुप्रेक्षा–चिन्तनम्, (ङ) धर्मस्य श्रुतरूपस्य कथा-व्याख्या धर्मकथा ।---बृहदवत्ति, पत्र 583 3. (क) तीर्थमिह गणधरस्तस्य धर्म:-माचारः, श्रुतधर्मप्रदानलक्षणस्तीर्थधर्मः, (ख) यदि वा तीर्थ—प्रवचनं श्रुतमित्यर्थस्तद्धर्मः स्वाध्यायः / -वही, पत्र 584 (ग) तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तंजहासमणा समणीग्रो, सावगा, सावियाग्रो। -भगवती. 2018 4, मोहयतीति मोहनीयं कर्म तच्च चारित्रमोहनीययमपि भवतीति विशेष्यते--कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षण त्वाच्चास्य शंकादिपरिग्रहः / कांक्षायाः मोहनीयं-कांक्षामोहनीयम्-मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः / 5. च शब्दाद् व्यंजनसमुदायात्मकत्वाद्वा पदस्य तल्लब्धि पदानुसारितामुत्पादयति / -बृहद्वत्ति, पत्र 584 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org