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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम) [499 २२–परियट्टणाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? परियट्टणाए णं वंजणाई जणयइ, बंजणद्धि च उप्पाएइ / / [22 प्र.] भन्ते ! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] परावर्त्तना से व्यञ्जनों की उपलब्धि होती है और जीव व्यञ्जनलब्धि को प्राप्त करता है। २३–अणुप्पेहाए णं भन्ते ! जोवे कि जणयइ ? अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबन्धणबद्धानो सिढिलबन्धणबद्धाओ पकरेइ / दोहकालट्ठिइयाओ हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ / तिव्वाणुभावाओ मन्दाणुभावाप्रो पकरेइ / बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गामो पकरेइ / आउयं च णं कम्मं सिय बन्धइ, सिय नो बन्धइ / असायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उचिणाइ। अगाइयं च णं अणवदग्गं दोहमद्धचाउरन्तं संसारकन्तारं खिप्पामेव वीइवयइ // [23 प्र.] भन्ते ! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] अनुप्रेक्षा से आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष ज्ञानावरणीय आदि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ बन्धन को शिथिल कर लेता है, दीर्घकालीन स्थिति को ह्रस्व (अल्प) कालीन कर लेता है, उनके तीव्र रसानुभाव को मन्दरसानुभाव कर लेता है, बहुकर्मप्रदेशों को अल्पप्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं करता। असातावेदनीयकर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता / संसाररूपी अटवी, जो कि अनादि और अनवदन (अनन्त) है, दीर्घमार्ग से युक्त, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त हैं, उसे शीघ्र ही पार कर लेता है / 24. धम्मकहाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ। धम्मकहाए णं पवयण पभावेइ। पवयणपभावे णं जीवे आगमिसस्स भद्दत्ताए कम्मं निबन्धइ // [24 प्र.] भन्ते ! धर्मकथा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? उ.] धर्मकथा से जीव कर्मों को निर्जरा करता है और प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले कर्मों का बन्ध करता है। 25. सुयस्स आराहणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? सुयस्स आराहणयाए णं अन्नाणं खवेइ, न य संकिलिस्सइ // [25 प्र. भन्ते ! श्रुत की आराधना से जीव क्या प्राप्त करता है ? | उ.] श्रुत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है और क्लेश को प्राप्त नहीं होता। विवेचन–सप्तसूत्री प्रश्नोत्तरी–सू. 16 से 25 तक सात सूत्रों में स्वाध्याय, वाचना, प्रतिपृच्छना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा एवं श्रुत-बाराधना से होने वाली उपलब्धियों से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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