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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [493 अन्तर्मुहर्त तक चलती है / इस प्रकार मोहनी यकर्म निर्वीर्य बन जाता है / इसे ही जैन परिभाषा में क्षपकश्रेणी कहते हैं / क्षपकश्रेणि से ही केवलज्ञान प्राप्त होता है।' 7. गर्हणा से लाभ ८--गरहणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? गरहणयाए णं अपुरकारं जणयइ। अपुरकारगए णं जीवे अप्पसत्थेहितो जोगेहितो नियत्तेइ / पसत्थजोग-पडिवन्ने य णं अणगारे अणन्तघाइपज्जवे खवेइ // [8 प्र.] भन्ते ! गर्हणा (गहीं) से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] गर्हणा से जीव को अपुरस्कार प्राप्त होता है / अपुरस्कार प्राप्त जीव अप्रशस्त योग (मन-वचन-काया के व्यापारों) से निवृत्त होता है और प्रशस्त योगों में प्रवृत्त होता है। प्रशस्त-योग प्राप्त अनगार अनन्त (ज्ञान-दर्शन-) घाती पर्यायों (ज्ञानावरणीयादि कर्मों के परिणामों) का क्षय करता है। विवेचन—गहणा (गर्हा) : लक्षण—(१) दूसरों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना, (2) गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना, (3) प्रमादरहित होकर अपनी शक्ति के अनुसार उन कर्मों के क्षय के लिए पंचपरमेष्ठी के समक्ष आत्मसाक्षी से उन रागादि भावों का त्याग करना गर्दा है / / अपुरक्कार- अपुरस्कार---यह गुणवान् है, इस प्रकार का गौरव देना पुरस्कार है। इस प्रकार के पुरस्कार का अभाव अर्थात् गौरव का न होना अपुरस्कार है। अप्पसत्थेहितो : प्राशय-गौरव-भाव से रहित व्यक्ति कर्मबन्ध के हेतुभूत अप्रशस्त गुणों से निवृत्त होता है। अणंतघाइपज्जवे : प्राशय-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, प्रात्मा के ये गुण अनन्त हैं / ज्ञान और दर्शन के आवरक परमाणुओं को क्रमश: ज्ञानावरण और दर्शनावरण कहते हैं / सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र का विघातक मोहनीयकर्म कहलाता है और पांच लब्धियों का विघातक अन्तरायकर्भ है / ये चारों प्रात्मा के निजगुणों का घात करते हैं / अतः इस पंक्ति का अर्थ होगा प्रात्मा के अनन्त विकास के घातक ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के जो 'पर्यव' हैं अर्थात् कर्मों की (विशेषत: ज्ञानावरणादि कर्मों की) विशेष परिणतियों का क्षय कर देता है। - :-- .... 1. (क) करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणिः करण गुणश्रेणिः / (ख) प्रक्रमात् क्षपकणिरेव गृह्यते / -बृहद्वृत्ति, पत्र 580 (ग) प्रक्रमात् भपकवेणि / --सर्वार्थसिद्धि 2. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र 580 (ख) 'गुरुसाक्षिदोषप्रकटनं गौं / '- समयसार ता. व. 306 (ग) पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध 474 : गर्हणं तत्परित्यागः पंचगुर्वात्मसाक्षिकः / निष्प्रमादतया ननं शक्तित: कर्महामये // 3. ......... "ज्ञानावरणीयादि कर्मणः तद्घातित्वलक्षणान् परिणतिविशेषान् (पर्यवान्) क्षपयति क्षयं नयति / " -बहवत्ति, पत्र 580, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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