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________________ [उत्तराध्ययनसूत्र माया-बाहर से साधुवेष और अन्तर में वंचकभाव या दूसरों को प्रसन्न करने की वृत्ति / निदान तप, धर्माचरण आदि की वैषयिक फलाकांक्षा और मिथ्यादर्शन–धर्म, जीव, साधु, देव और मुक्ति प्रादि को विपरीतरूप में जानना-मानना। ये तीनों मोक्षपथ में विघ्नकर्ता हैं। इन्हें आलोचनाकर्ता उखाड़ फेंकता है।' 6. निन्दना से लाभ ७–निन्दणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? निन्दणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ / पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेटिं पडिवज्जइ करणगुणसेढि पडिवन्ने य णं अणगारे मोहणिज्ज कम्मं उग्धाएइ / [7 प्र.] भते ! निन्दना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] निन्दना से पश्चात्ताप होता है। पश्चात्ताप से विरक्त होता हुया व्यक्ति करणगुणश्रेणि को प्राप्त होता है / करणगुणश्रेणि-प्रतिपन्न अनगार मोहनीय कर्म का क्षय करता है / विवेचन--निन्दना-(१) स्वयं के द्वारा स्वयं के दोषों का तिरस्कार, (2) आत्मसाक्षीपूर्वक-स्वयं किये हुए दोषों को प्रकट करना, या उन-सम्बन्धी पश्चात्ताप करना, (3) स्वदोषों का पश्चात्ताप करना / __ करणगुणश्रेणि : व्याख्या-'करणगुणश्रेणि' शब्द एक पारिभाषिक शब्द है / उसका अर्थ हैअपूर्वकरण (पहले कदापि नहीं प्राप्त मन के निर्मल परिणाम) से होने वाली गणहेतुक कर्मनिर्जरा की श्रेणि। करण प्रात्मा का विशुद्ध परिणाम है। करणश्रेणि का अर्थ यहाँ प्रसंगवश क्षपकश्रेणि है। मोहनाश की दो प्रक्रियाएँ हैं--उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणि / जिससे मोह का क्रम से उपशम होतेहोते अन्त में सर्वथा उपशान्त हो जाता है, अन्तर्मुहूर्त के लिए उसका उदय में प्राना बन्द हो जाता है, उसे उपशमणि कहते हैं। उपशमणि से मोह का सर्वथा उद्धात नहीं होता। इसलिए यहाँ क्षपकश्रेणि ही ग्राह्य है। क्षपकश्रेणि में मोह क्षीण होते-होते अन्त में सर्वथा क्षीण हो जाता है, मोह का एक दलिक भी शेष नहीं रहता। क्षपकश्रेणि आठवेंगुणस्थान से प्रारम्भ होती है। आध्यात्मिक विकास की इस भूमिका का नाम अपूर्वकरणगुणस्थान है। यहाँ परिणामों की धारा इतनी विशुद्ध होती है, जो पहले कभी नहीं हुई थो, इसो कारण यह 'अपूर्वकरण' कहलाती है। आगामी क्षणों में उदित होने वाले मोहनीयकर्म के अनन्तप्रदेशी दलिकों को उदयकालीन प्राथमिक क्षण में ला कर क्षय कर देना भावविशुद्धि की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रथम समय से दूसरे समय में कर्मपुद्गलों का क्षय असंख्यातगुण अधिक होता है। दूसरे से तीसरे समय में असंख्यातगुण अधिक और तीसरे से चौथे में असंख्यातगुण अधिक / इस प्रकार कर्मनिर्जरा की यह तीव्रगति प्रत्येक समय से अगले समय में असंख्यातगुणी अधिक होती जाती है। कर्मनिर्जरा की यह धारा असंख्यातसमयात्मक एक 1. (क) सर्वार्थसिद्धि 7 / 18 / 356 (ख) भगवती आराधना 25 / 85 2. (क) उत्तरा. बृहद्वत्ति, पत्र 580 (ख) 'आत्मसाक्षि-दोपप्रकटनं निन्दा।' –समयसार तात्पर्यवृत्ति 306 // 388 / 12 (ग) पंचाध्यायी उत्तराद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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