________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [491 हैं-(१) वर्ण श्लाघा--गुणगुरु व्यक्ति की प्रशंसा, (2) संज्वलन-गुणप्रकाशन, (3) भक्ति-हाथ जोड़ना, गुरु के आने पर खड़ा होना, आदर देना आदि और (4) बहुमान-आन्तरिक प्रीतिविशेष या वात्सल्य-वश मन में आदरभाव / ' मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति–यों तो मनुष्यगति और देवगति, ये दोनों सुगतियाँ हैं, किन्तु जब मनुष्यगति में म्लेच्छता. दरिद्रता, अंगविकलता आदि मिलती है और देवगति में निम्नतम निकृष्ट जाति, किल्विषीपन आदि मिलते हैं, तब उन्हें दुर्गति समझना चाहिए। 5. अालोचना से उपलब्धि ६-आलोयणाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? आलोयणाए णं माया-नियाण-मिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्धाणं अणन्तसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ / उज्जुभावं च जणयइ / उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेय-नपुसगवेयं च न बन्धइ / पुवबद्ध च णं निज्जरेइ / 16 प्र.] भंते ! आलोचना से जीव को क्या लाभ होता है ? [उ.] आलोचना से मोक्षमार्ग में विघ्नकारक और अनन्त संसारवर्द्धक मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनरूप शल्य को निकाल देता है और ऋजुभाव को प्राप्त होता है / ऋजुभाव को प्राप्त जीव मायारहित होता है / अतः वह स्त्रीवेद और नपुसकवेद का बन्ध नहीं करता, यदि पूर्वबद्ध हो तो उसको निर्जरा करता है। विवेचन—आलोचना--(१) गुरु के समक्ष अपने दोषों का प्रकाशन, अथवा (2) अपने दैनिक जीवन में लगे हुए दोषों का स्वयं निरीक्षण- स्वावलोकन, आत्मसम्प्रेक्षण, (3) गुणदोषों की समीक्षा / तीन शल्य—शल्य कहते हैं तीखे कांटे, तीक्ष्ण बाण या अन्तर्वण (अन्दर के घाव), अथवा पीड़ा देने वाली वस्तु को। जैनागमों में शल्य के तीन प्रकार बताए गये हैं--माया, निदान और मिथ्यादर्शन / माया, निदान और मिथ्यादर्शन, इन तीन शल्यों की जिन से उत्पत्ति होती है, ऐसे कारणभूत कर्म को द्रव्य शल्य और इनके उदय से होने वाले जीव के माया, निदान एवं मिथ्यादर्शनरूप परिणाम को भावशल्य कहते हैं। 1. विनयप्रतिपत्ति:--प्रारम्भे अंगीकारे वा / वर्ण: श्लाघा, संज्वलनं-गुणोद्भासनम्, भक्तिः-अंजलिप्रग्रहादिका, बहुमानम्-पान्तरणीतिविशेषः / -बृहद्वृत्ति, पत्र 579 2. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 237 3. (क) उत्तरा. (गु. भाषान्तर) भा, 2, पत्र 237 (ख) संपिक्खए अप्पममप्पएण। -दशवकालिक अ. 9, उ.३ (ग) आलोचना-गुणदोषसमीक्षा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org