________________ 490] [उत्तराध्ययनसूत्र छेयण-भेयण-संजोगाईणं-छेदन तलवार आदि से टुकड़े कर देना, काटना / भेदन का अर्थ है--भाले पादि से फाड़ना (विदारण) करना / संयोग---अनिष्टसम्बन्ध, आदि शब्द से इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि / ' तीव्र धर्मश्रद्धा का महाफल-व्यवहारसूत्र के अनुसार तीव्र धर्मश्रद्धा स्वभावत: असंसर्गकारिणी होती है, उससे बन्धन सर्वथा छिन्न हो जाते हैं, अर्थात्-धर्मश्रद्धावान् सर्वत्र ममत्वरहित हो जाता है / ऐसा साधक अकेला हो या परिषद् में, सर्वत्र, सभी परिस्थितियों में प्रात्मा की रक्षा करता है।' 4. गुरु-सार्मिक-शुश्रूषा का फल ५---गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं विणयपडित्ति जणयइ / विणयपडिवन्ने य णं जीवे प्रणच्चासायणसीले नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देव-दोग्गईओ निरुम्भइ / वण्ण-संजलण-भत्ति-बहुमाणयाए मणुस्स-देवसोग्गईओ निबन्धइ, सिद्धि सोग्गइंच विसोहेइ / पसत्थाई च णं विणयमूलाइं सव्वकज्जाई साहेइ / अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ / / [5 प्र.] गुरु और सार्मिक की शुश्रूषा से, भगवन् ! जीव क्या (फल) प्राप्त करता है ? [उ.] गुरु और सार्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय-प्रतिपत्ति को प्राप्त होता है। विनयप्रतिपन्न व्यक्ति (परिवादादिरूप) पाशातनारहित स्वभाव वाला होकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध कर देता है / वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान के कारण वह मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति (पायु) का बन्ध करता है / श्रेष्ठ गति और सिद्धि का मार्ग प्रशस्त (शुद्ध) करता है। विनयमूलक सभी (प्रशस्त) कार्यों को साधता (सिद्धि करता) है। बहुत-से दूसरे जीवों को भी विनयी बना देता है। विवेचन-शुश्रषा : स्वरूप-(१) गुरु के आदेश को विनयपूर्वक सुनने की इच्छा, (2) परिचर्या, (3) न अतिदूर और न प्रतिनिकट, किन्तु विधिपूर्वक सेवा करना, (4) गुरु आदि की वैयावृत्य, (5) सद्बोध तथा धर्मशास्त्र सुनने की इच्छा / 3 विणयपडिवत्ति-विनय का प्रारम्भ अथवा विनय का अंगीकार / विनयप्रतिपत्ति के चार अंग-प्रस्तुत सूत्र (5) में विनयप्रतिपत्ति के चार अंग बताए गए छेदन---खड्गादिना द्विधाकरणम्, भेदन-कुन्तादिना विदारणम्, ग्रादि शब्दस्येहापि सम्बन्धात् ताडनादयश्च गृह्यते।""संयोग:--प्रस्तावादनिष्टसम्बन्धः / ग्रादि शब्दादिष्टवियोगादिग्रहः / तत: छेदनभेदनादिना शारीरिकदुःखानां, संयोगादिना मानसदुःखानां व्यवच्छेदः / -बृहद्वत्ति, पत्र 578 निस्सग्गुसग्गकारी य, सम्वतो छिन्नबंधणा। एगो वा परिसाए वा अप्पाणं सोऽभिरक्खइ॥ -- व्यवहारसूत्र, उ. 1 3. (क) सूत्रकृतांग श्रु. 1, अ. 9 (ख) दशवकालिक अ. 9, उ. 1 (ग) अष्टक 25, . (घ) सद्बोधः / धर्मशास्त्रश्रवणेच्छा -पंचाशक 6 विवरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org