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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [ 489 विरज्जइ / सव्वविसएसु विरज्जमाणे आरम्भपरिच्चायं करेइ / आरम्भपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिन्दइ, सिद्धिमग्गे पडिवन य भवइ / / [3 प्र.] भंते ! निर्वेद से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यञ्च-सम्बन्धी कामभोगों से शीघ्र ही विराग को प्राप्त होता है, (क्रमशः) सभी विषयों से विरक्त हो जाता है। समस्त विषयों से विरक्त होकर वह प्रारम्भ का त्याग कर देता है। प्रारम्भपरित्याग करके संसारमार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धिमार्ग को प्राप्त होता है। विवेचन—निर्वेद के लक्षण--(१) संसार-विषयों के त्याग की भावना, (2) संसार से वैराग्य, (3) संसार से उद्विग्नता, (4) संसार-शरीर-भोग-विरागता, (5) समस्त अभिलाषाओं का त्याग, (6) संवेग विधिरूप होता है, निर्वेद निषेधात्मक / ' निर्वेद-फल-(१) सर्व कामभोगों तथा विषयों से विरक्ति, (2) विषयविरक्ति के कारण प्रारम्भ-परित्याग, (3) प्रारम्भ-परित्याग के कारण संसारपरिभ्रमणमार्ग का विच्छेद और (4) अन्त में सिद्धिमार्ग की प्राप्ति / 3. धर्मश्रद्धा का फल ४-धम्मसद्धाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ / अगारधम्मं च णं चयइ / अणगारे णं जीवे सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ, अव्वाबाहं च सुहं निव्वत्तेइ / / [4 प्र.] भंते ! धर्मश्रद्धा से जीव को क्या उपलब्धि होती है ? / [उ.] धर्मश्रद्धा से (जीव) साता-सुखों, अर्थात्--सातावेदनीय कर्मजनित वैषयिक सुखों की प्रासक्ति से विरक्त हो जाता है, अगारधर्म (गृहस्थसंबंधी प्रवृत्ति) का त्याग करता है / अनगार हो कर जीव छेदन-भेदन अादि शारीरिक तथा संयोग अादि मानसिक दुःखों का विच्छेद (विनाश) कर डालता है और अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है / विवेचन धर्मश्रद्धा का अर्थ है-श्रुतचारित्ररूप धर्म का प्राचरण करने की अभिलाषा, तीव्र धर्मेच्छा। रज्जमाणे विरज्जइ-पहले राग (विषयसुखों के प्रति आसक्ति) करता हुआ विरक्त हो जाता है। 1. (क) बदत्ति ५७८............"निर्वेदेन सामान्यतः संसारविषयेण कदाऽसौ त्यक्ष्यामीत्येवंरूपेण"...." (ख) बृहत्कल्प 3 उ. ' (ग) उत्तरा. अ. 18 वत्ति (घ) निर्वेदः संसार-शरीर-भोगविरागतः। --मोक्षप्राभत 82 टीका (ङ) 'त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो....... –पंचाध्यायी उत्तराद्ध 443 (च) वही, मा. 442 2. उत्तरा, बृहद्वृत्ति, पत्र 578 (सारांश) 3. बहवत्ति, पत्र 578 4. वही, पण 578 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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