________________ 488] [उत्तराध्ययनसूत्र संवेग पाता है / (तब जीव) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लाभ का क्षय करता है और नए कर्मों का बन्ध नहीं करता / उस (अनन्तानुबन्धीकषायक्षय-) निमित्तक मिथ्यात्व-विशुद्धि करके (जीव) सम्यग्दर्शन का पाराधक हो जाता है। दर्शनविशोधि के द्वारा विशुद्ध होकर कई जीव उसी भव (जन्म) से सिद्ध (मुक्त) हो जाते हैं। (दर्शन-) विशोधि से विशुद्ध होने पर (प्रायुष्य के अल्प रह जाने से जिनके कुछ कर्म बाकी रह जाते हैं, वे) भी तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते (अर्थात् तीसरे भव में अवश्य ही मोक्ष चले जाते हैं)। विवेचन-संवेग के विविध रूप-(१) सम्यक् उद्वेग अर्थात् मोक्ष के प्रति उत्कण्ठा संवेग, (2) मनुष्यजन्म और देवभव के सुखों के परित्यागपूर्वक मोक्षसुखाभिलाषा, (3) मोक्षाभिलाषा, (4) नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देवभवरूप संसार के दुःखों से नित्य डरना, (5) धर्म में, धर्मफल में, अथवा दर्शन में हर्ष अथवा परम उत्साह होना, अथवा धार्मिक पुरुषों के प्रति अनुराग, पंचपरमेष्ठी में प्रीति होना संवेग है। (6) तत्त्व, धर्म, हिंसा से विति, राग-द्वेष-मोहादि से रहित देव एवं समस्त ग्रन्थों से रहित निर्ग्रन्थ गुरु में अविचल अनुराग होना भी संवेग है / ' ___ संक्षेप में संवेग-फल--(१) उत्कृष्टः धर्मश्रद्धा, (2) परमधर्मरुचि से मोक्षाभिलाषा (संसारदुःखभीरुता), (3) अनन्तानुबन्धीकषायक्षय, (4) नवकर्मबन्धन-निरोध, (5) मिथ्यात्वक्षय से क्षायिक निरतिचार सम्यग्दर्शन का अाराधन होना, (6) सम्यक्त्वविशुद्धि से प्रात्मा निर्मल हो - जाने पर या तो उसी भव में या तीसरे भव तक में अवश्य मुक्ति की प्राप्ति / सम्यक्त्व के पाँच लक्षणों में दूसरा लक्षण है / सम्यक्त्व के लिए इसका होना अनिवार्य है / 2 नवं च कम्मं न बंधइ : आशय-इस पंक्ति का प्राशय है कि यह तो नहीं कहा जा सकता कि सम्यग्दृष्टि के अशुभकर्म का बन्ध नहीं होता बल्कि कषायजनित अशुभकर्मबन्ध चालू रहता है। अत: इस पंक्ति का आशय शान्त्याचार्य के अनुसार यह है कि जिसके अनन्तानुबन्धी चतुष्टय सर्वथा क्षीण हो जाता है, जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, उसके नये सिरे से मिथ्यादर्शनजनित कर्मबन्ध नहीं होता। 2. निर्वेद से लाभ ३–निवेएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? निव्वेएणं दिव-माणुस-तेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्व मागच्छइ / सम्वविसएसु 1. (क) पाचारांगचूणि 1143 (ख) दशवकालिक 1 अ. टीका (ग) बृहद्वत्ति, पत्र 577 (घ) नारकतिर्यग्मनुष्यदेवभवरूपात् संसारदुःखान्नित्यभीरुता संवेगः / –सर्वार्थसिद्धि 6 / 24 (ङ) द्रव्यसंग्रहटीका 3511217 (च) पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध 431 : संवेगः परमोत्साहो धर्म धर्मफले चित्तः / सधर्मेष्वनुरागो वा, प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु / / (छ) तथ्ये धर्म ध्वस्तहिसाप्रबन्धे, देवे राग-द्वेष-मोहादिमुक्त / साधी सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः / / -योगविशिका 2. बृहद्वत्ति, पत्र 577-578 (सारांश) 3. वही, पत्र 578 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org