________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम [487 करके, (3) रोयइत्ता-तदनन्तर उक्त अध्ययन में कथित अनुष्ठानविषयक या उक्त अध्ययनविषयक रुचि (प्रात्मा में उसको अभिलाषा) उत्पन्न करके (क्योंकि किसी वस्तु के गुणकारी होने पर भी कठोर या कष्टसाध्य होने से कटु-औषध की तरह अरुचि हो सकती है, इसलिए तद्विषयक रुचि होना अनिवार्य है.) (4) फासित्ता-फिर उस अध्ययन में उक्त अनुष्ठान का स्पर्श करके अर्थात् प्राचरण में लाकर, (5) पालइत्ता तत्पश्चात् अध्ययन में विहित कार्य का अतिचारों से रक्षा करते हुए आचरण करके, (6) तीरित्ता-उक्त अध्ययन में विहित कर्तव्य को जीवन के अन्तिम क्षण तक पार लगा कर, (8) कित्तइत्ता उसका कीर्तन -- गुणानुवाद करके अथवा स्वाध्याय करके, (9) सोहइत्ता फिर अध्ययन में कथित कर्तव्य का आचरण करके उन-उन गुणस्थानों को प्राप्त करके उत्तरोत्तर शुद्ध करके, (11) आराहिता--फिर उत्सर्ग और अपवाद में कुशलता प्राप्त करके आजोवन उस ताव का सेवन करके, (11) प्राणाए अणुपालइत्ता-तदनन्तर गुरु-पाज्ञा से सतत अनुपालन-सेवन करके, अथवा-मन-वचन-कायरूप त्रियोग (चिन्तन, भाषण और रक्षण) से स्पर्श करके, इसी प्रकार त्रियोग से पालन करके, या प्रावृत्ति से रक्षा करके, गुरु के समक्ष यह निवेदन (कीर्तन) करके कि मैंने इसे इस प्रकार पढ़ा है तथा गुरु की तरह अनुभाषणादि से शुद्ध करके, उत्सूत्रप्ररूपणादि दोषों के परिहारपूर्वक पाराधन करके / यह प्रस्तुत अध्ययन में पराक्रम का क्रम है। ___ इस क्रम से सम्यक्त्व में पराक्रम करने पर जीव सिद्ध होते हैं, सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, बुद्ध होते हैं—घातिकर्मों के क्षय से बोध-केवल-ज्ञान पाते हैं, मुक्त होते हैं-भवोपग्राही शेष चार कर्मों के क्षय से मुक्त हो जाते हैं, फिर परिनिवत्त (परिनिर्वाणप्राप्त) होते हैं, अर्थात् समग्र कर्मरूपी दावानल की शान्ति से शान्त हो जाते हैं और इस कारण (शारीरिक-मानसिक) समस्त दुःखों का अन्त करते हैं अर्थात्-मुक्तिपद प्राप्त करते हैं।' __अध्ययन में वर्णित अर्थाधिकार-प्रस्तुत अध्ययन में संवेग से लेकर अकर्मता तक 73 बोलों के स्वरूप और अप्रमादपूर्वक की गई उक्त बोलों की साधना से होने वाले फलों की चर्चा की गई है। 1. संवेग का फल २---संवेगेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्ध जणयइ / अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हवमागच्छइ / अणन्ताणुबन्धिकोह-माण-माया-लोभे खवेइ / नवं च कम्मं न बन्धइ / तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहि काऊण दसणाराहए भवइ / दसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ / सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ // [2 प्र.] भन्ते ! संवेग से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] संवेग से जीव अनुत्तर धर्मश्रद्धा को प्राप्त करता है / अनुत्तर धर्मश्रद्धा से शीघ्र ही 1. वृहद्वृत्ति, अभि, रा. कोष भा. 7, पृ. 507 2. वही, सारांश, भा. 7, पृ. 504 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org