________________ 486] [उत्तराध्ययनसूत्र (1) संवेग, (2) निर्वेद, (3) धर्मश्रद्धा, (4) गुरु और सार्मिक की शुश्रूषा, (5) पालोचना, (6) निन्दना, (7) गर्हणा, (8) सामायिक, (6) चतुर्विशति-स्तव, (10) वन्दना, (11) प्रतिक्रमण, (12) कायोत्सर्ग, (13) प्रत्याख्यान, (14) स्तव-स्तुतिमंगल, (15) कालप्रतिलेखना, (16) प्रायश्चित्तकरण, (17) क्षामणा-क्षमापना, (18) स्वाध्याय, (16) बाचना, (20) प्रति-पृच्छना, (21) परावर्तना-(पुनरावृत्ति), (22) अनुप्रेक्षा, (23) धर्मकथा, (24) श्रुतआराधना, (25) एकाग्रमनोनिवेश, (26) संयम, (27) तप, (28) व्यवदान (विशुद्धि), (26) सुखसाता, (30) अप्रतिबद्धता, (31) विविक्तशय्यासन-सेवन (32) विनिवर्तना, (33) संभोग-प्रत्याख्यान, (34) उपधि-प्रत्याख्यान, (35) आहार-प्रत्याख्यान, (36) कषायप्रत्याख्यान, (37) योग-प्रत्याख्यान, (38) शरीर-प्रत्याख्यान, (36) सहाय-प्रत्याख्यान, (40) भक्तप्रत्याख्यान, (41) सद्भाव-प्रत्याख्यान, (42) प्रतिरूपता, (43) वैयावृत्य, (44) सर्वगुणसम्पन्नता, (45) वीतरागता, (46) क्षान्ति, (47) मुक्ति (-निर्लोभता), (48) आर्जव (-ऋजुता), (46) मार्दव (-मृदुता), (50) भावसत्य, (51) करणसत्य, (52) योगसत्य, (53) मनोगुप्ति, (54) वचनगुप्ति, (55) कायगुप्ति, (56) मनःसमाधारणता, (57) वचनसमाधारणता, (58) कायसमाधारणता, (56) ज्ञानसम्पन्नता, (60) दर्शनसम्पन्नता, (61) चारित्रसम्पन्नता, (62) श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह, (63) चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह, (64) घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, (65) जिह्वेन्द्रिय-निग्रह, (66) स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह, (67) क्रोधविजय, (68) मानविजय, (66) मायाविजय, (70) लोभविजय, (71) प्रेय-द्वेष-मिथ्यादर्शन विजय, (72) शैलेशी (अवस्था) और (73) अकर्मता (-स्थिति)। विवेचन--सुधर्मास्वामी का जम्बूस्वामी के प्रति कथन-यद्यपि सुधर्मास्वामी (पंचम गणधर) स्वयं श्रुतकेवली थे, अतः उनके द्वारा जम्बूस्वामी को कहा गया वचन प्रामाणिक ही होता, फिर भी उन्होंने स्वयं अपनी ओर से कथन न करके आयुष्मान् भगवान् महावीर का उल्लेख किया है / वह इस दृष्टि से कि लब्धप्रतिष्ठ साधक को भी गुरुमाहात्म्य प्रकट करने के लिए गुरु द्वारा उपदि थ का प्रतिपादन करना चाहिए। अतएव स्वयं अपने मुह से सीधे न कह कर भगवान् के श्रीमुख से उपदिष्ट का कथन किया / ' सम्यक्त्व-पराक्रम : अर्थ--प्राध्यात्मिक जगत् में, अथवा जिनप्रवचन में सम्यक्त्व के अथवा गण और गुणी का अभेद मानने पर जीव के सम्यक्त्व गुणयुक्त होने पर जो पराक्रम किया जाता है, अर्थात्-उत्तरोत्तर गुण (मूल-उत्तरगुण) प्राप्त करके कर्मरिपुत्रों पर विजय पाने का सामर्थ्य रूप पुरुषार्थ (पराक्रम) किया जाता है, वह सम्यक्त्व-पराक्रम कहलाता है / अध्ययन का माहात्म्य और फल-सम्यक्त्व-पराक्रम एक साधना है, समग्रतया शुद्धरूप में होने पर जिसके द्वारा जीव मोक्षरूप फल प्राप्त कर लेता है / इसी तथ्य का निरूपण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-सम्यक्त्वपराक्रम-साधना की पराकाष्ठा पर पहुँचने का क्रम इस प्रकार है-- (1) सद्दहित्ता-सम्यक् (अविपरीत) रूप से श्रद्धा करके, (2) पत्तइत्ता-तत्पश्चात् शब्द, अर्थ और उभयरूप से सामान्यतया प्रतीति (प्राप्ति) करके, अथवा यह कथन उक्तरूप ही है, इस प्रकार ही है, यह विशेषतया निश्चिय करके, अथवा संवेगादिजनित फलानुभवरूप विश्वास से प्रतीति 1. उत्तरा. ब. बृत्ति, अ. ग. कोश. भा. 7, पृ. 504, 2. वही, भा. 7, पृ. 504 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org