________________ 494] [उत्तराध्ययनसूत्र 8 से 13. सामायिकादि षडावश्यक से लाभ ९–सामाइएणं भन्ते! जोवे कि जणयइ ? सामाइएणं सावज्जजोगविरइंजणयइ। 6 प्र.] भन्ते ! सामायिक से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] सामायिक से जीव सावद्ययोगों से विरति को प्राप्त होता है। १०--चउन्धीसत्थएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? चउव्वीसत्थएणं दंसविसोहि जणयइ / / [10 प्र.] भन्ते ! चतुर्विंशतिस्तव से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] चतुर्विशतिस्तव से जीव दर्शन-विशोधि प्राप्त करता है / ११-बन्दणएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वन्दणएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ / उच्चागोयं निबन्धइ / सोहागं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयह // [11 प्र.] भन्ते ! वन्दना से जीव क्या उपलब्ध करता है ? |उ.] बन्दना से जीव नोचगोत्रकर्म का क्षय करता है, उच्चगोत्र का बन्ध करता है / वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त करता है, उसकी आज्ञा (सर्वत्र) अबाधित होती है (अर्थात्-प्राज्ञा शिरोधार्य हो, ऐसा फल प्राप्त होता है ) तथा दाक्षिण्यभाव (जनता के द्वारा अनुकूलभाव) को प्राप्त करता है। १२–पडिक्कमणेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाई पिहेइ / पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे, असबलचरित्ते, अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ // [12 प्र.] भन्ते ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] प्रतिक्रमण से जीव स्वीकृत व्रतों के छिद्रों को बंद कर देता है / व्रत-छिद्रों को बंद कर देने वाला जीव पाश्रवों का निरोध करता है, उसका चारित्र धब्बों (अतिचारों) से रहित (निष्कलंक) होता है, वह अष्ट प्रवचनमाताओं के अाराधन में सतत उपयुक्त (सावधान) रहता है तथा (संयम-योग में) अपृथक्त्व (एकरस तल्लीन) हो जाता है तथा सम्यक् समाधियुक्त हो कर विचरण करता है। १३--काउस्सग्गेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? काउस्सगेणं ऽतीय-पडुप्पन्न पायच्छित्तं विसोहेइ / विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभारो व्व भारवहे, पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ / / [13 प्र.] भन्ते ! कायोत्सर्ग से जीव क्या प्राप्त करता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org