________________ म 482] [उत्तराध्ययनसूत्र छेदोपस्थापनीय चारित्र-छेदोपस्थापनीय के यहाँ दो तात्पर्य हैं—(१) सर्वसावद्यत्याग का छेदश:--विभागशः पंचमहावतों के रूप में उपस्थापित (पारोपित) करना, (2) दोषसेवन करने वाले मुनि के दीक्षापर्याय का छेद (काट) करके महाव्रतों का पुनः प्रारोपण करना। इसी दृष्टि से छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो प्रकार बताए गए हैं-निरतिचार और सातिचार / छेद का अर्थ जहाँ विभाग किया जाता है, वहाँ निरतिचार तथा जहाँ छेद का अर्थ-दीक्षापर्याय का छेदन (घटाना) होता है, वहाँ सातिचार समझना चाहिए।' परिहारविशुद्धि चारित्र--परिहार का अर्थ है-प्राणिवध से निवृत्ति। परिहार से जिस चारित्र में कर्मकलंक की विशुद्धि (प्रक्षालन) की जाती है, वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। इसकी विधि इस प्रकार है-इसकी आराधना 8 साधु मिलकर करते हैं। इसकी अवधि 18 महीने को होती है। प्रथम 6 मास में 4 साधू तपस्या (ऋतु के अनुसार उपवास से लेकर पंचौला तक की तपश्चर्या) करते हैं, चार साधु उनकी सेवा करते हैं और एक वाचनाचार्य (गुरुस्थानीय) रहता है / दूसरे 6 महीनों में तपस्या करने वाले सेवा और सेवा करने वाले तप करते हैं, वाचनाचार्य बही रहता है। इसके पश्चात् तीसरी छमाही में वाचनाचार्य तप करते हैं, शेष साधु उनकी सेवा करते हैं / तप की पारणा सभी साधक आयम्बिल से करते हैं, उनमें से एक साधु वाचनाचार्य हो जाता है। इस दृष्टि से परिहार का तात्पर्यार्थ-तप होता है, उसी से विशेष प्रात्म-शुद्धि की जाती है / जव साधक तप करता है तो प्राणिवध के प्रारम्भ-समारम्भ के दोष से सर्वथा निवत्त हो ही जाता है। सम्पराय चारित्र--सामायिक अथवा छेदोपस्थापनीय चारित्र की साधना करते-करते जब क्रोधादि तीन कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, केवल लोभकषाय सूक्ष्म रूप में रह जाता है, इस स्थिति को सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहा जाता है। यह चारित्र दशम गुणस्थानवर्ती साधुओं को होता है। __यथाख्यात चारित्र-जब चारों कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय को चारित्रिक स्थिति को यथाख्यात चारित्र कहते हैं / यह चारित्र गुणस्थान की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त है-उपशमात्मक यथाख्यात चारित्र और क्षयात्मक यथाख्यात चारित्र / प्रथम चारित्र 11 बैं गुणस्थान वाले साधक को और द्वितीय चारित्र 12 वें आदि ऊपर के गुणस्थानों के अधिकारी महापुरुषों के होता है / 1. (क) छेदैर्भेदरूपेत्यर्थ, स्थापनं स्वस्थितिक्रिया। छेदोपस्थापनं प्रोक्तं सर्वसावद्यबजने // -प्राचारसार 5 // 6-7 (ख) सातिचारस्य यतेनिरतिचारस्य वा शैक्षकस्य पूर्वपर्यायव्यवच्छेदरूपस्तद् युक्तोपस्थापना महावतारोपण रूपा यस्मिस्तच्छेदोपस्थापनम् / 2. (क) परिहरणं परिहार:--प्राणिवधान्नित्तिरित्यर्थः / परिहारेण विशिष्टा शुद्धिः कर्म कलंकप्रक्षालनं यस्मिन चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिचारिश्रमिति / (ख) स्थानांग 51428 वत्ति, पत्र 324 (ग) प्रवचनसारोद्धार 602-610 / / 3. 'सुक्ष्मः-किटीकरणतः संपर्येति-पर्यटति अनेन संसारमिति सम्परायो--लोभाख्यः कषायो यस्मिस्तत्सुक्ष्मसम्परायम् / ' - बृहद्वृत्ति, पत्र 568 4. सुह-असुहाण णिवित्ति चरणं साहुस्स वीयरायस्स / -बृहद् नयचक्र गा. 378 सदमसरपशवपसनसानामा सममा 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org