________________ अट्राईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति] [481 चारित्र : स्वरूप और प्रकार 32. सामाइयत्य पढमं छेओवट्ठावणं भवे बीयं / परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च / / [32] चारित्र के पांच प्रकार हैं-पहला सामायिक, दूसरा छेदोपस्थापनीय, तीसरा परिहारविशुद्धि, चौथा सूक्ष्म-सम्पराय और 33. प्रकसायं अहक्खायं छउमत्थस्स जिणस्स वा / एयं चयरित्तकरं चारित्तं होइ प्राहियं // |33] पांचवाँ यथाख्यातचारित्र है, जो सर्वथा कषायरहित होता है / वह छद्मस्थ और केवली–दोनों को होता है। यह पंचविध चारित्र कर्म के चय (संचय) को रिक्त (खाली) करता है, इसलिए यह चारित्र कहा गया है / विवेचन-चारित्र के दो रूपों में विरोध नहीं-गाथा 33 में चारित्र का निरुक्त दिया है'चयरित्तकरं चारित्तं'। इसका भावार्थ यह है कि पूर्वबद्ध कर्मों का जो संचय है, उसे 12 प्रकार के तप से रिक्त करना चारित्र है। यह निर्जरारूप चारित्र है और आगे गाथा 35 में 'चरितण निगिण्हाई' कह कर चारित्र का जो स्वरूप बताया है, वह संवररूप चारित्र है, अर्थात्-नये कर्मों के अाधव को रोकना संवररूप चारित्र है। अतः इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं है, बल्कि कर्मों से आत्मा को पृथक करने के दोनों मार्ग हैं / ये दोनों चारित्र के रूप हैं।' चारित्र के प्रकार और स्वरूप --चारित्र के पांच प्रकार यहाँ बताए गए हैं--(१) सामायिक चारित्र, (2) छेदोपस्थापनीय चारित्र, (3) परिहारविशुद्धि चारित्र, (4) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र और (5) यथाख्यात चारित्र / वास्तव में सम्यक् चारित्र तो एक ही है। उसके ये पांच प्रकार विशेष अपेक्षाओं से किये गए हैं। सामायिक चारित्र-जिसमें सर्वसावध प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। विविध अपेक्षाओं से कथित छेदोपस्थापनीय आदि शेष चार चारित्र, इसी के विशेष रूप हैं। मूलाचार के अनुसारप्रथम और अन्तिम तीर्थकर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र का उपदेश दिया था, मध्य के शेष 22 तीर्थकरों ने सामायिक चारित्र का प्ररूपण किया। दूसरी बात यह है कि सामायिक चारित्र दो प्रकार का होता है—इत्वरिक और यावत्कथिक / इत्वरिक सामायिक का भगवान् आदिनाथ और भगवान् महावीर के (नवदीक्षित) शिष्यों के लिए विधान है, जिसकी स्थिति 7 दिन, 4 मास या 6 मास की होती है। तत्पश्चात् इसके स्थान पर छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार किया जाता है / शेष 22 तीर्थंकरों के शासन में सामायिक चारित्र 'यावत्कथिक' (यावज्जीवन के लिए) होता है / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 569 2. (क) सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एक व्रतम्, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम् / -तत्त्वार्थ, राजवार्तिक (ख) 'बावीसं तित्थयरा सामायिक संजमं उदिसंति / छेदोवद्रावणियं पुण, भयवं उसहो य वीरो य॥' --मूलाचार 736 (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र 568 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org