________________ 480] [उत्तराध्ययनसूत्र 4. अमूढदृष्टि-देवमूढता. गुरुमूढता, धर्ममूढता, शास्त्रमूढता, लोकमूढता आदि मूढताओंमोहमयी दृष्टियों से रहित होना अमूढदृष्टि है। देवमूढता-रागी-द्वेषी देवों की उपासना करना, गुरुमूढता - प्रारम्भ-परिग्रह में आसक्त, हिंसादि में प्रवृत्त, मात्र वेषधारी साधु को गुरु मानना, धर्ममढता-अहिंसादि शूद्ध धर्मतत्त्वों को धर्म न मानकर हिंसा, प्रारम्भ, आडम्बर, प्रपंच आदि स युक्त सम्प्रदाय या मत-पंथ को या स्नानादि प्रारम्भजन्य क्रियाकाण्डों या अमुक वेष को धर्म मानना धर्ममूढता है / शास्त्रमूढता-हिंसादि की प्ररूपणा करने वाले या असत्य-कल्पनाप्रधान, अथवा रागद्वेषयुक्त अल्पज्ञों द्वारा जिनाज्ञा-विरुद्ध प्ररूपित ग्रन्थों को शास्त्र मानना / लोकमूढता-अमुक नदी या समुद्र में स्नान, अथवा गिरिपतन, प्रादि लोक प्रचलित कुरूढ़ियों, या कुप्रथाओं को धर्म मानना / किन्हीं-किन्हीं प्राचार्यों के अनुसार मूढता का अर्थ-एकान्तवादी, कुपथगामियों तथा षडायतनों (मिथ्यात्व, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याचारित्र, मिथ्याचारित्री) की प्रशंसा, स्तुति, सेवा या सम्पर्क अथवा परिचय करना भी है।' 5. उपबहण---इसके अर्थ हैं—(१) प्रशंसा, (2) वृद्धि, (3) पुष्टि / यथा—(१) गुणीजनों की प्रशंसा करके उनके गुणों को बढ़ावा देना, (2) अपने प्रात्म गुणों (क्षमा, मृदुता आदि) की वृद्धि करना, (3) सम्यग्दर्शन की पुष्टि करना / कई प्राचार्य इसके बदले उपगृहन मानते हैं। जिसका अर्थ है—(१) परदोषों का निगहन करना, अथवा अपने गुणों का गोपन करना। 6. स्थिरीकरण- सम्यक्त्व अथवा चारित्र से चलायमान हो रहे व्यक्तियों को पुनः उसी मार्ग में स्थिर कर देना, या उसे अर्थादि का सहयोग देकर धर्म में स्थिर करना स्थिरीकरण है। 7. वात्सल्य अहिंसादि धर्म अथवा सार्मिकों के प्रति हार्दिक एवं निःस्वार्थ अनुराग, वत्सलभाव रखना तथा सार्मिक साधुवर्ग की या श्रावकवर्ग की सेवा करना / 8. प्रभावना-प्रभावना का अर्थ है--(१) रत्नत्रय से अपनी प्रात्मा को भावित (प्रभावित) करना, (2) धर्म एवं संघ की उन्नति के लिए चिन्तन, मंगलमयी भावना करना / आठ प्रकार के व्यक्ति प्रभावक माने जाते हैं-(१) प्रवचनी, (2) वादी, (3) धर्मकथी, (6) नैमित्तिक, (7) सिद्ध (मन्त्रसिद्धिप्राप्त आदि) और (8) कवि / ' 1. (क) रत्नकरण्डश्रावकाचार 1122-23-24 (ख) कापथे पथि दु:खानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः / असंपृक्तिरनुत्कीति रमूढाहष्टिरुच्यते // -रत्नकरण्डश्रावक चार 1314 (ग) अणादयणसेवणा चेव-अनायतनं षविध---मिथ्यात्वं, मिथ्यारष्टयः, मिथ्याज्ञानं, तद्वन्तः, मिथ्याचारित्रं, मिथ्याचारित्रवन्त इति / --मूलाराधना 1144 2. धोऽभिवर्द्धनीयः, सदात्मनो मार्दवादि विभावनया परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृहणगुणार्थम् / -पुरुषार्थसिद्धय पाय 28 3. दर्शनाच्चरणाद्वाऽपि चलतां धर्मवत्सलैः / प्रत्यवस्थापनं प्राजः स्थितीकरणमुच्यते // -रत्नकरण्डश्रावकाचार 16 4. वत्सलभावो वात्सल्यं -सार्धामकजनस्य भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणम् / -बृहद्वृत्ति, पत्र 567 5. (क) प्रभावना च-तथा तथा स्वतीर्थोन्नतिचेष्टासु प्रवत नात्मिका। -बही, पत्र 567 (ख) योगशास्त्र 2016 वृत्ति, पत्र 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.