________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति] [479 है / प्रस्तुत गाथा में प्राचारात्मक अंग 8 हैं, जबकि अतिचारात्मक 5 हैं / शंका, कांक्षा और विचिकित्सा, ये तीन अतिचार तो तीन प्राचारों के उल्लंघन के रूप में हैं। शेष रहे 5 आचार, इनके उल्लंघन के रूप में परपाषण्डप्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव ये दो हैं ही। यथा---जो मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा, स्तुति या घनिष्ठ सम्पर्क करता है वह मूढदृष्टि तो है ही, वह गुणो सम्यग्दृष्टि के गुणों का उपबृहण, प्रशंसा या स्थिरीकरण नहीं करता और न उसमें स्वधर्मी के प्रति वत्सलता या प्रभावना सम्भव है।' 1. निःशंकता—जिनोक्त तत्त्व, देव, गुरु, धर्म-संघ या शास्त्र आदि में देशतः या सर्वतः शंका का न होना सम्यग्दर्शनाचार का प्रथम अंग नि:शंकता है / शंका के दो अर्थ किये गए हैं संदेह और भय / अर्थात् जिनोक्त तत्त्वादि के प्रति संदेह अथवा सात भयों से रहित होना निःशंकित सम्यग्दर्शन है। 2. निष्कांक्षा–कांक्षारहित होना निष्कांक्षित सम्यग्दर्शन है। कांक्षा के दो अर्थ मिलते हैं(१) एकान्तदृष्टि वाले दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा, अथवा (2) धर्माचरण से इहलौकिकपारलौकिक वैभव या सुखभोग आदि पाने की इच्छा / ' 3. निर्विचिकित्सा विचिकित्सा रहित होना सम्यग्दर्शन का तृतीय प्राचार है / विचिकित्सा के भी दो अर्थ हैं-(१) धर्मफल में सन्देह करना और (2) जुगुप्सा–घृणा / द्वितीय अर्थ का आशय है--रत्नत्रय से पवित्र साधु-साध्वियों के शरीर को मलिन देख कर घृणा करना, या सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदि की निन्दा करना भी विचिकित्सा है। 1. (क) मूलाराधना 201 (ख) रत्नकरण्डश्रावकाचार 21 (ग) काति केयानुप्रेक्षा 425 (घ) शंका-कांक्षा-विचिकित्साऽन्यरष्टि-प्रशंसा-संस्तवाः सम्यम्दष्टेरतिचाराः। -तत्त्वार्थ. 7.18 (ङ) तत्वार्थ. श्रुतसागरीय वृत्ति, 7123 पृ. 248 2. (क) 'शंकनं शंकितं देशसर्वशंकात्मक तस्याभावो निःशंकितम् / ' ब. वृत्ति, पत्र 567 (ख) 'सम्मद्दिट्टी जीवा, णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा सम्हा ह णिस्संका॥' -समयसार गा. 228 (ग) 'तत्र शंका-यथा निग्रन्थानां मुक्तिरुक्ता तथा सग्रन्थानामपि महस्थादीनां कि मुक्तिर्भवतीति शंका, अथवा भयप्रकृतिः शंका / ' -तत्वार्थ, वृत्ति 7 / 23 3. (क) 'इहपर-लोकभोगाकांक्षण कांक्षा।' –तत्त्वार्थ. वत्ति 7 / 23 (ख) इहजन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् / एकान्तवाददूषित-परसमयानपि च नाकांक्षेत् // ---पुरुषार्थ सिद्धच पाय 24 (ग) मूलाराधना विजयोदयावृत्ति 1144 4. (क) 'विचिकित्सा–मतिविभ्रमः युक्त्यागमोपपन्नेऽप्यर्थ फलं प्रति सम्मोहः / यद्वा विद्वज्जुगुप्सा-मलमलिना एते इत्यादि साधुजुगुप्सा।' -प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र 64 (ख) रत्नकरण्डश्रावकाचार 113 (ग) 'यद्वा विचिकित्सा निन्दा सा च सदाचारमुनिविषया, यथा-प्रस्नानेन प्रस्वेदजलक्लिन्नमलत्वात् दुर्गन्धिवपुष एत इति / ' –योगशास्त्र 2 / 17 वृत्ति, पत्र 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org