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________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति] 1473 (बन्ध और पाश्रव) तत्त्वों का और उनके कारणों का स्वरूप न जाने तो भी वह अपने पथ (मोक्षपथ) में अस्खलित प्रवृत्ति नहीं कर सकता। मुमुक्षु को सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि मेरा शुद्ध स्वरूप क्या है ? इस प्रकार के ज्ञान की पूर्ति के लिए तत्त्वों का कथन है / जीव तत्त्व के कथन का अर्थ है—मोक्ष का अधिकारी बतलाना / अजीव तत्त्व से यह सूचित किया गया है कि जगत् में एक ऐसा भी तत्त्व है, जो जड़ होने से मोक्षमार्ग के उपदेश का अधिकारी नहीं है / बन्धतत्त्व से मोक्ष के विरोधी भाव (संसारमार्ग) का और पाश्रव तथा पाप तत्त्व से उक्त विरोधी भाव (संसार) के कारण का निर्देश किया गया है। संबर और निर्जरा तत्त्व से मोक्ष के कारणों को सूचित किया गया है / पुण्य कथंचित् हेय एवं कथंचित् उपादेय तत्व है, जो निर्जरा में परम्परा से सहायक बनता है।' नौ तत्त्वों का संक्षिप्त लक्षण-जीव का लक्षण सुख, दुःख, ज्ञान और उपयोग है / अजीव इससे विपरीत धर्मास्तिकायादि हैं। पुण्य शुभप्रकृतिरूप सातादि कर्म है, पाप अशुभप्रकृतिरूप मिथ्यात्वादि कर्म है / आश्रव का लक्षण है-जिससे शुभाशुभ कर्म ग्रहण (ग्राश्रवण) किये जाते हैं / अर्थात् कर्मबन्धन के हेतु--हिंसादि अाश्रव हैं। संवर है—महाव्रत, समिति, गुप्ति प्रादि द्वारा अाधवों का निरोध करना / बन्ध है—पाश्रवों के द्वारा गहीत कर्मों का पात्मा के साथ संयोग / कर्मों को भोग लेने से अथवा बारह प्रकार के तप करने से बंधे हए कर्मों का देशत: क्षय क निर्जरा है तथा बन्ध और आथवों द्वारा गहीत कर्मों का प्रात्मा से पूर्णतया वियोग मोक्ष है, अथवा समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय होने से आत्मा का अपने शुद्ध रूप में प्रकट हो जाना मोक्ष है। जीव और अजीब, दो में ही समावेश क्यों नहीं? वस्तुत: नौ तत्त्वों में दो ही तत्त्व मौलिक - हैं—जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व / शेष तत्त्वों का इन्हीं दो में समावेश हो सकता है / जैसे कि पुण्य और पाप, दोनों कर्म हैं / बन्ध भी कमत्मिक है और कर्म पुद्गल-परिणाम है। पुद्गल अजीव है। आश्रव मिथ्या दशनादिरूप परिणाम है और वह जोव का है। अत: पाश्रव प्रात्मा (जीव) और पुद्गलों से अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है / संवर पाश्रवनिरोधरूप है, वह देशसंवर और सर्वसंवर के भेद से आत्मा का निवृत्तिरूप परिणाम है / निर्जरा कर्म का एकादेश से क्षय (परिशाटन) रूप है / जीव अपनी शक्ति से प्रात्मा से कर्मों का पार्थक्य-संपादन करता है / मोक्ष भी समस्त कर्मरहितरूप प्रात्मा (जीव) है / निष्कर्ष यह है कि अजीव और जीव इन दोनों में शेष तत्त्वों का समावेश हो जाता है, फिर नौ तत्त्वों का कथन क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि सामान्यतया जीव और अजीव, ये दो ही तत्त्व हैं किन्तु विशेषतया, तथा मोक्षमार्ग में मुमुक्षु को प्रवृत्त करने के लिए : तत्त्वों का कथन किया गया है / __नौ तत्त्वों के भेद-प्रभेद -नौ तत्त्वों के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं—जीव के भेद-जीव के मुख्य दो भेद हैं-सिद्ध और संसारी / संसारी जीवों के भी त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं। स्थावर (एकेन्द्रिय) के दो भेद --सूक्ष्म और बादर / उनके दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / वनस्पतिकाय के दो भेद--प्रत्येक और साधारण, फिर त्रस-द्वीन्द्रिय, बोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से 8 भेद हुए। इस प्रकार 4+2+8=14 भेद। फिर एकेन्द्रिय के 1. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी) अ. 1, सू. 4, पृ. 6 2. स्थानांगसूत्र स्थान 9, वृत्ति 3. वही, स्था. 9, वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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