________________ अद्राईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति [471 और दर्शन का तथा वीर्य में चारित्र और तप का समावेश हो जाता है। जीवों का उपकार हैपरस्पर में एक दूसरे का उपग्रह करना / ' पदगल का लक्षण और उपकार-प्रस्तुत 12 वीं एवं 13 वी गाथा में पुदगल के 10 लक्षण बताए हैं। इनमें वर्ण. गन्ध, रस और स्पर्श, ये चार पदगल के गुण हैं और शेष 6 पुदगलों के परिणाम या कार्य हैं / जैसे—-शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया एवं आतप, ये 6 पुद्गल के परिणाम या कार्य हैं। लक्षण में दोनों ही पाते हैं। गुण सदा साथ ही रहते हैं, परिणाम या कार्य निमित्त मिलने पर प्रकट होते हैं।२।। शब्द : व्याख्या शब्द को जैनदर्शन ने पौद्गलिक, मूर्त और अनित्य माना है / स्थानांगसूत्र में पुद्गलों के संघात और विघात तथा जीव के प्रयत्न से होने वाले पुद्गलों के ध्वनिपरिणाम को शब्द कहा गया है / पुद्गलों के संघात-विघात से होने वाली शब्दोत्पत्ति को वैस्रासिक और जीव के प्रयत्न से होने वाली को प्रायोगिक कहा जाता है। पहले काययोग द्वारा शब्द के योग्य अर्थात भाषावर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण होता है और फिर वे पुद्गल शब्दरूप में परिणत होते हैं / तत्पश्चात् जब वे वक्ता के मुंह से वचनयोग-बाकप्रयत्न द्वारा बोले जाते हैं, तभी उन्हें 'शब्दसंज्ञा' प्राप्त होती है / अर्थात् वचनयोग द्वारा जब तक उनका विसर्जन नहीं हो जाता, तब तक उन्हें शब्द नहीं कहा जाता / शब्द जीव के द्वारा भी होता है, अजोव के द्वारा भी। जीवशब्द साक्षर और निरक्षर दोनों प्रकार का होता है, अजीवशब्द अनक्षरात्मक होता है। तीसरा मिश्रशब्द जीव-अजीव दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है। वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है तो शब्द के भाषापुद्गल बिखरकर फैलने लगते हैं / वे भिन्न होकर इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि अपने समकक्ष अन्यान्य अनन्त परमाणु-स्कन्धों को भाषा के रूप में परिणत करके लोकान्त तक फैल जाते हैं। वक्ता का प्रयत्न मन्द होता है तो शब्द के पुद्गल अभिन्न होकर फैलते हैं, लेकिन वे असंख्य योजन तक पहुँच कर नष्ट हो जाते हैं। अन्धकार और उद्योत-अन्धकार को जैनदर्शन ने प्रकाश का अभावरूप न मानकर प्रकाश (उद्योत) को तरह पुद्गल का सद्रप पर्याय माना है। वास्तव में अन्धकार पुद्गलद्रव्य है, क्योंकि 1. (क) जीवो उवग्रोगलक्षणो। –उत्तरा. 28.10 (ख) परस्परोपग्रहो जोवानाम् / -तत्त्वार्थ. 5121 2. (क) उत्तरा. 28/12 (ख) स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्त:-पुद्गलाः / शब्द-बन्ध-सोक्षम्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च / -तत्त्वार्थ. श२३-२४ 3, (क) भगवती, 137 रूबी भंते ! भासा, अरूबी भासा? गोयमा ! रूबी भासा, नो अरूपी भासा / (ख) 'शब्दान्धकारोद्योतप्रभाच्छायातपवर्णगन्धरसस्पर्शा एते पुदगलपरिणामा: पुद्गललक्षणं वा।' नवतत्त्वप्रकरण (ग) स्थानांग स्था. 2381 (घ) भगवती. १३७-भासिज्जमाणो भासा / ' (ङ) प्रज्ञापना. पद 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org