________________ 470] [ उत्तराध्ययनसूत्र धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का उपकार भगवतीसूत्र में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जब इन दोनों के उपकार के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा—गौतम ! जीवों के गमन, आगमन, भाषा, उन्मेष, मन, वचन और काय के योगों की प्रवृत्ति तथा इसी प्रकार के अन्य चलभाव धर्मास्तिकाय से ही होते हैं। इसी प्रकार जीवों की स्थिति, निषीदन, शयन, मन का एकत्वभाव तथा ऐसे ही अन्य स्थिरभाव अधर्मास्तिकाय से होते हैं। धर्म और अधर्म ये दोनों लोक में ही हैं, अलोक में नहीं। आकाशास्तिकाय का उपकार--सभी द्रव्यों को अवकाश देना है।' काल का लक्षण और उपकार-काल का लक्षण है—वर्तना। आशय यह है कि नये को पुराना और पुराने को नया बनाना काल का लक्षण है। काल के उपकार या लिंग पांच हैं वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व / श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार काल जीव-अजीव की पर्याय तथा व्यवहारदृष्टि से द्रव्य माना जाता है। काल को मानने का कारण उसको उपयोगिता है, वह परिणाम का हेतु है, यही उसका उपकार है / व्यवहारकाल मनुष्यक्षेत्रप्रमाण और औपचारिक द्रव्य है। दिगम्बरपरम्परा के अनुसार काल लोकव्यापी एवं अणुरूप है और कालाणुओं की संख्या लोकाकाश के तुल्य है। काल के विभाग काल के चार प्रकार है-(१) प्रमाणकाल-पदार्थ मापने का काल, (2-3) यथानिवृत्तिकाल तथा मरणकाल-जीवन की स्थिति को यथायुनिवृत्तिकाल एवं उसके 'अन्त' को मरणकाल कहते हैं। (4) अद्धाकाल--सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्धित काल / अनुयोगद्वारसूत्र में काल के अन्य विभागों का भी उल्लेख है / ' जीव का लक्षण और उपकार-एक शब्द में जीव का लक्षण 'उपयोग' है / उपयोग का अर्थ है-चेतना का व्यापार / चेतना के दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन, अर्थात्-उपयोग के दो रूप हैंसाकार और अनाकार / उपयोग ही जीव को अजीव से भिन्न (पृथक) करने वाला गुण है। जिसमें उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन है, वह जीव है ; जिसमें यह नहीं है, वह 'अजीव' है ! आगे 11 वी गाथा में जीव का विस्तृत लक्षण दिया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा वीर्य और उपयोग, ये जीव के लक्षण हैं / इन सबको हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- वीर्य और उपयोग / उपयोग में ज्ञान 1. (क) भगवतीसूत्र 13 / 4 (ख) उत्तरा. अ. 289 (ग) गतिस्थित्यूपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः, प्राकाशस्यावगाहः / -तत्त्वाथे. अ.५११७-१८ 2. (क) 'वत्तणालखणो कालो।' –उत्तरा. 2819 (ख) वतना परिणाम: क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य -तत्त्वार्थ-५१२२ (ष) 'समयाति वा, आवलियाति वा, जीवाति वा अजीवाति वा पच्चति / ' -स्थानांग 214195 (घ) लोगागामपदेसे, एक्केक्के जे ठिया ह एक्केक्का / रयणाणं रासीइव, ते कालाण असंखदव्वाणि / / -द्रव्यसंग्रह 22 (ङ) अनुयोगद्वारसूत्र 134-140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org