________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति असाधारणधर्म-इन छह द्रव्यों में से प्रत्येक का एक-एक विशेष (व्यवच्छेदक) धर्म भी है, जो उसी में ही पाया जाता है। जैसे- धर्मास्तिकाय का गतिसहायकत्व, अधर्मास्तिकाय का स्थितिसहायकत्व, अाकाशास्तिकाय का अवकाश (अवगाह)-दायकत्व, आदि / ' पर्याय का विशिष्ट अर्थ और विविध प्रकार-पर्याय का विशिष्ट अर्थ परिवर्तन भी होता है, जो जीव में भी होता है और अजीव में भी। इस प्रकार पर्याय के दो रूप हैं---जीवपर्याय और अजीवपर्याय / फिर परिवर्तन स्वाभाविक भी होते हैं, वैभाविक (नैमित्तिक) भी। इस आधार पर दो रूप बनते हैं स्वाभाविक और वैभाविक / अगुरुलधुत्व आदि पर्याय स्वाभाविक हैं और मनुष्यत्व, देवत्व, नारकत्व आदि वैभाविक पर्याय हैं। फिर परिवर्तन स्थूल भी होता है, सूक्ष्म भी। इस अपेक्षा से पर्याय के दो रूप और बनते हैं-व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्याय / व्यञ्जनपर्याय कहते हैं -स्थूल और कालान्तरस्थायी पर्याय को तथा अर्थपर्याय कहते हैं-सूक्ष्म और वर्तमानकालवर्ती पर्याय को / इन और ऐसे ही अन्य परिवर्तनों के आधार पर प्रस्तुत अध्ययन की 13 वी गाथा में एकत्व, पृथक्त्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग, विभाग आदि को पर्याय का लक्षण बताया गया है।' लोक षड़द्रव्यात्मक क्यों और कैसे ? -- 'लोक' क्या है ? इसका समाधान जैनागमों में चार प्रकार से किया गया है। भगवतीसूत्र में एक जगह 'धर्मास्तिकाय' को लोक कहा गया, दूसरी जगह लोक को पंचास्तिकायमय कहा गया है तथा उत्तराध्ययन के 36 वें अध्ययन में तथा स्थानांगसूत्र में जीव और अजीव को लोक कहा गया है। प्रस्तुत गा. 7 में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा गया है / अतः अपेक्षाभेद से यह सब कथन समझना चाहिए, इनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है / धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक हैं। पुद्गल और जीव संख्या में अनन्त-अनन्त हैं। 1. (क) अस्थित्तं वत्थुत्तं दव्वत्तं पमेयत्तं अगुरुल हुत्त / देसत्त चेदणितरं मुत्तममुत्त वियाणे ह / / एक्केक्का अट्ठा सामण्णा हुँति सव्वदव्वाणं // --बृहदायचक गा. 11 से 12, 15 (ख) सम्वेसि सामण्णा दह भणिया सोलस विसेसा / / 11 / / णाणं दसण सुहसत्ति रूप रसगंधफास-गमण-ठिदी / / वट्टण-गाहणहेउं मुत्तममुस खल चेदणिदरं च // 13 / / छवि जीवपोग्गलाणं इयराण वि सेस तितिभेदा // 15 // - बृहद्नयचक्र, गा. 11, 13, 15 (ग) “अवगाहनाहेतुत्व, मतिनिमित्तता, स्थितिकारणत्वं, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्ता, चेतनत्वमित्यादयो विशेषगुणाः / " -प्रवचनसार ता. वृत्ति, 95 2. (क) परि-समन्तात् प्राय:-पर्यायः। --राजवातिक 1133 / 1295 (ख) स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्यायः / --पालापपद्धति 6 (ग) तद्भावः परिणामः--उसका होना-प्रति समय बदलते रहना पर्याय है। (घ) अथवा द्वितीययकारेणार्थव्यञ्जनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति / –पंचास्तिकाय ता. वृ. 1635 / 12 (ङ) 'सम्भावं ख विहावं वक्ष्याणं पज्जयं जिणहिटठं। -बहदनयचक 17-18 (च) धवला 9 / 4,1,48 3. (क) भगवती. 2010, तथा 13 / 4 (ख) उत्तरा, अ. 36 / 2 तथा स्थानांग. 214/130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org