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________________ 468] [उत्तराध्ययनसूत्र हों तथा स्वयं निर्गुण हों, वे गुण हैं / ' अर्थात्-द्रव्य के प्राश्रय में रहने वाला वही गुण 'गुण'' है, जिसमें दूसरे गुणों का सद्भाव न हो, अथवा जो निर्गुण हो / वास्तव में गुण द्रव्य में ही रहते हैं / __पर्याय का लक्षण-जो द्रव्य और गुण, दोनों के आश्रित रहता है, वह पर्याय है / नयप्रदीप एवं न्यायालोक में पर्याय का लक्षण कहा गया है जो उत्पन्न, विनष्ट होता है तथा समग्र द्रव्य को व्याप्त करता है, वह पर्याय है। बृहद्वत्तिकार कहते हैं-जो समस्त द्रव्यों और समस्त गुणों में व्याप्त होते हैं, वे पर्यव या पर्याय कहलाते हैं। समीक्षा--प्राचीन युग में द्रव्य और पर्याय, ये दो शब्द ही प्रचलित थे / 'गुण' शब्द दार्शनिक युग में 'पर्याय' से कुछ भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुअा जान पड़ता है। कई पागम ग्रन्थों में 'गुण' को पर्याय का ही एक भेद माना गया है, इसीलिए कतिपय उत्तरवर्ती दार्शनिक विद्वानों ने गुण और पर्याय की अभिन्नता का समर्थन किया है। जो भी हो, उत्तराध्ययन में गुण का लक्षण पर्याय से पृथक किया है। द्रव्य के दो प्रकार के धर्म होते हैं-गुण और पर्याय / इसी दृष्टि से दोनों का अर्थ किया गया---सहभावी गुणः, क्रमभावी पर्यायः / अर्थात्-द्रव्य का जो सहभावी अर्थात् नित्य रूप से रहने वाला धर्म है, वह गुण है, और जो क्रमभावी धर्म है, वह पर्याय है / निष्कर्ष यह है कि 'गुण' द्रव्य का व्यवच्छेदक धर्म बन कर उसकी अन्य द्रव्यों से पृथक सत्ता सिद्ध करता है। गुण द्रव्य में कथंचित् तादात्म्यसम्बन्ध से रहते हैं, जब कि पर्याय द्रव्य और गुण, दोनों में रहते हैं / यथा आत्मा द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है, मनुष्यत्व आदि आत्मद्रव्य के पर्याय हैं और मतिज्ञानादि ज्ञानगुण के पर्याय हैं। गुण दो प्रकार का होता है सामान्य और विशेष / प्रत्येक द्रव्य में सामान्य गुण हैं---अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्व और अगुरुलघुत्व आदि / विशेष गुण हैं-(१) गतिहेतुत्व, (2) स्थितिहेतुत्व, (3) अवगाहहेतुत्व, (4) वर्तनाहेतुत्व, (5) स्पर्श, (6) रस, (7) गन्ध, (8) वर्ण, (6) ज्ञान, (10) दर्शन, (11) सुख, (12) वीर्य, (13) चेतनत्व, (14) अचेतनत्व, (15) मूर्त्तत्व और (16) अमूर्त्तत्व आदि / द्रव्य 6 हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय / इन छहों द्रव्यों में द्रव्यत्य, प्रमेयत्व, वस्तुत्व, अस्तित्व अादि सामान्यधर्म (गुण) समानरूप से पाए जाते हैं। 1. (क) एगदवस्सिया गुणा / --उत्तरा. अ. 28, गा. 6 (ख) 'द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः। -तत्त्वार्थ. 5140 2. (क) लक्खणं पज्जवाणं तु उभयो अस्सिया भवे / -उत्तरा. 286 (ख) पर्येति उत्पत्ति-विपत्ति चाप्नोति पर्यवति वा व्याप्नोति समस्तमपि द्रव्यमिति पर्यायः पर्यवो वा। -न्यायालोक तत्त्वप्रभावृत्ति, पत्र 203 (ग) पति उत्पादमुत्पत्ति विपत्ति च प्राप्नोतीति पर्यायः / -नयप्रदीप. पत्र 99 (घ) परि सर्वतः-द्रव्येष गुणेषु संवेष्ववन्ति-गच्छन्तीति पर्यावाः। --वृहदवत्ति, पत्र 557 3. (क) प्रमाणनयतत्त्वालोक रत्नाकरावतारिका, 517-8 (ख) पंचा स्तिकाय ता. वृत्ति. 16335 / 12 (ग) श्लोकवार्तिक 4 / 1 / 33 / 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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