________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति] [467 अधर्म (अधर्मास्तिकाय) का लक्षण है। सभी द्रव्यों का भाजन (प्राधार) आकाश है। वह अवगाह लक्षण वाला है। 10. वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य // [10] वर्त्तना (परिवर्तन) काल का लक्षण है / उपयोग (चेतना-व्यापार) जीव का लक्षण है, जो ज्ञान (विशेषबोध), दर्शन (सामान्यबोध) और सुख तथा दुःख से पहचाना जाता है / 11. नाणं च दसणं चेव चरितं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं / / [11] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग, ये जीव के लक्षण हैं / 12. सद्दऽन्धयार-उज्जोओ पहा छायाऽऽतवे इ वा। वण्ण-रस-गन्ध-फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं / / [12] शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये पुद्गल के लक्षण हैं। 13. एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य / संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्षणं / [13] एकत्व, पृथक्त्व (भिन्नत्व), संख्या, संस्थान (आकार), संयोग और विभाग–ये पर्यायों के लक्षण हैं। विवेचन-द्रव्य का लक्षण-विभिन्न दर्शनों ने द्रव्य का लक्षण अपनी-अपनी दृष्टि से भिन्नभिन्न मान्य किया है। जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य वह है जो गुणों (रूप आदि) का प्राश्रय (अनन्त गुणों का पिण्ड) है। उत्तरवर्ती जैनदार्शनिकों ने गुण और पर्याय में भेदविवक्षा करके द्रव्य का लक्षण किया- “जो गुणपर्यायवान् है, वह द्रव्य है।" इसके अतिरिक्त जैनदर्शन के ग्रन्थों में द्रव्यशब्द का प्रयोग विभिन्न शब्दों में हना है यथा--उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त हो, वह सत् है, जो सत है, वह 'द्रव्य' है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया गया है--जिसमें पूर्वपर्याय का विनाश और उत्तरपर्याय का उत्पाद हो, वह द्रव्य है।' गुण का लक्षण-गुण का लक्षण भी विभिन्न दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से किया है। जैनदर्शन का आगमकालीन लक्षण प्रस्तुत गाथा (6) में दिया है---"जो किसी द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण होते हैं।" उत्तरवर्ती जैनदार्शनिकों ने लक्षण किया—'जो द्रव्य के आश्रय में रहते 1. (क) गुणाणमासओ दव्वं / -उत्तरा. अ. 28, गा. 6 (ख) 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम् / ' –तत्त्वार्थ. 5 / 37 (ग) उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्त सत्, सद्रव्यलक्षणम् / -तत्वार्थ. श२९ (घ) विशेषावश्यकभाष्य, गा. 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org