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________________ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सप, विनय, शान्ति, मादव, आर्जव, अदीनता, तितिक्षा, आवश्यक, शुद्धि, ये सभी सच्चे भिक्षु के लिंग हैं। भिक्षु का निरुक्त है--जो भेदन करे वह भिक्षु है / कुल्हाड़ी से वृक्ष का भेदन करना द्रव्य-भिन का लक्षण हो सकता है, भाव-भिक्षु तो तप रूपी कुल्हाड़ी से कर्मों का भेदन करता है। जो केवल भीख मांगकर खाता है किन्तु दारायुक्त है, बस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, मन, वचन और काया से सावध प्रवृत्ति करता है, वह द्रव्य-भिक्षु है। केवल भिक्षाशील व्यक्ति ही भिक्ष नहीं है। किन्तु जो अहिंसक जीवन जीता है, सयममय जीवन यापन करता है वह भिक्षु है। इससे यह स्पष्ट है कि भिखारी अलग है और भिक्षु अलग है। भिक्षु को प्रत्येक वस्तु याचना करने पर मिलती है। मनोवांछित वस्तु मिलने पर वह प्रसन्न नहीं होता गौर न मिलने पर अप्रसन्न नहीं होता / वह तो दोनों ही स्थितियों में समभाव से रहता है। श्रमण आवश्यकता की सम्पुति के लिए किसी के सामने हीन भावना से हाथ नहीं पसारता / वह वस्तु की याचना तो करता है किन्तु ग्रात्मगौरव की क्षति करके नहीं। वह महान व्यक्तियों की न तो चापल सी करता है और न छोटे व्यक्तियों का तिरस्कार / न धनवानों की प्रशंसा करता है और न निर्धनों को निन्दा / वह सभी के प्रति ममभाव रखता है / इस प्रकार ममत्व की साधना ही भिक्ष के प्राचार-दर्शन का सार है। फ्रायड का मन्तव्य है--चैतसिक जीवन और मम्भवतया स्नायविक जीवन को भी प्रमुख प्रवृत्ति है---पान्तरिक उद्दीपकों के तनाव को नष्ट कर एवं माम्यावस्था को बनाये रखने के लिए सदैव प्रयासशील रहना ! 16. प्रस्तुत अध्ययन में भिक्षु के जीवन का शब्दचित्र प्रस्तुत किया गया है। इससे उस युग की अनेक दार्शनिक व सामाजिक जानकारियाँ भी प्राप्त होती हैं। उस समय कितने ही श्रमण व ब्राह्मण मंत्रविद्या का प्रयोग करते थे, चिकित्साशास्त्र का उपयोग करते थे। भगवान महावीर ने भिक्षयों के लिए उसका निषेध किया / वमन, विरेचन और धूम्रनेत्र ये प्राचीन चिकित्सा-प्रणाली के अंग थे। धुम्रनेत्र का प्रयोग मस्तिष्क सम्बन्धी गंगों के लिए होता था। प्राचार्य जिनदाम के अभिमतानुसार रोग की आशंका और शोक आदि से बचने के लिए अधवा मानसिक ग्राह्लाद के लिए धप का प्रयोग किया जाता था।६१ प्राचार्य नेमिचन्द्र ने उत्तराध्ययन की बहदवत्ति में धम को 'मेनसिल' आदि से सम्बन्धित माना है।६२ चरक में 'मेनसिल' यादि के धम को 'शिरोविरेचन' करने वाला माना है / 163 सुश्रु त के चिकित्सास्थान के चालीसवें अध्याय में धूम का विस्तार मे वर्णन है। मुत्रकृतांग में धपन और धूमपान दोनों का निषेध है। "विनयपिटक' के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि बौद्ध भिक्ष धूमपान करने लगे थे तब तथागत बुद्ध ने उन्हें धूमनेत्र की अनुमति दी।५४ उसके पश्चात भिक्ष स्वर्ण रौप्य आदि के धमनेत्र रखने लगे / 165 इमसे यह स्पष्ट है कि भिक्ष और संन्यासियों में धूमपान न करने के लिा धमनेत्र रखने की प्रथा थी। पर भगवान महावीर ने श्रमणों के लिए इनका निषेध किया। 160. Beyond the pleasure principle-S. Freud. उद्धृत अध्यात्मयोग और चित्त-विकलन, 161. धूवर्णत्ति नाम प्रारोगपडिकम्मं करेइ धूमंपि, इमाए सोगाइणो न भविस्मति / –दशकालिक-जिनदामणि, पृष्ठ-११५ 162. धूम-मनःशिलादिसम्बन्धि / -उत्तराध्ययन-नेमिचन्द्रवत्ति, पन्ना-२१७ 163. चरकसंहिता सुत्र-५॥२३. 164. अनुजानामि भिक्खवे धमनेत ति ! ____विनयपिटक, महावग्ग 627 165. विनयपिटक, महावग्ग-६७ [57 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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