________________ वमन का अर्थ उल्टी करना-'मदन' फल ग्रादि के प्रयोग से ग्राहार को उल्टी के द्वारा बाहर निकालना है। इसे ऊध्व विरेक कहा है। '66 अपानमार्ग के द्वारा स्नेह आदि का प्रक्षेप 'वस्तिकर्म' कहलाता है। चरक आदि में विभिन्न प्रकार के वस्तिकों का वर्णन है।' 67 जुलाब के द्वारा मल को दूर करना विरेचन है। इसे अधोविरेक भी कहा है / 166 उस युग में प्राजीवक आदि श्रमण छिन्नविद्या, स्वरविद्या, भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दण्ड, वास्तुविद्या, अंगविकार एवं स्वरविज्ञान विद्यानों से आजीविका करते थे, जिससे जन-जन का अन्तर्मानम आकर्षित होता था। साधना में विघ्नजनक होने से भगवान् ने इनका निषेध किया। ब्रह्मचर्य : एक अनुचिन्तन सोलहवें अध्ययन में ब्रह्मचर्य-समाधि का निरूपण है। अनन्त, अप्रतिम, अद्वितीय, सहज आनन्द प्रात्मा का स्वरूप है। वासना विकृति है / ब्रह्मचर्य का अर्थ है विकृति से बचकर स्वरूपबोध प्राप्त करना / प्रश्नव्याकरण सूत्र में विविध उपमानों के द्वारा ब्रह्मचर्य को महिमा और गरिमा गाई है। जो ब्रह्मचर्य व्रत को पागधना करता है वही समस्त व्रत, नियम, तप, शील, विनय, सत्य, संयम ग्रादि की आराधना कर सकता है। ब्रह्मचर्य व्रतों का मरताज है, यहाँ तक कि ब्रह्मचर्य स्वयं भगवान् है / ब्रह्मचर्य का अर्थ मैथुन-विरति या सर्वेन्द्रिय संयम है / सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों का सम्बन्ध मानसिक भूमिका से है, पर ब्रह्मचर्य के लिए दैहिक और मानसिक ये दोनों भूमिकाएँ प्रावश्यक हैं। इसीलिए ब्रह्मचर्य को समझने के लिए शरीरशास्त्र का ज्ञान भी जरूरी है। मोह और शारीरिक स्थिति, ये दो अब्रह्म के मुख्य कारण है। शारीरिक दृष्टि से मनुष्य जो आहार करता है उससे रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य बनता है। 166 वीयं सातवी भूमिका में बनता है। उसके पश्चात वह प्रोज रूप में शरीर में व्याप्त होता है। प्रोज केवल वीर्य का ही सार नहीं है, वह सभी धातुओं का सार है। हमारे शरीर में अनेकों नाड़ियाँ हैं। उन नाडियों में एक नाड़ी कामवाहिनी है। वह पैर के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क के पिछले भाग तक है। विविध आसनों के द्वारा इस नाड़ी पर नियंत्रण किया जाता है। माहार से जो वीर्य बनता है, वह रक्त के साथ भी रहता है और वीर्याशय के अन्दर भी जाता है। जब वीर्याशय में वीर्य की मात्रा अधिक पहुँचती है तो वासनाएँ उभरती हैं। अतः ब्रह्मचारी के लिए यह कठिन समस्या है। क्योंकि जब तक जीवन है तब तक आहार तो करना ही पड़ता है। प्राहार से वार्य का निर्माण होगा। वह वीर्याशय में जायेगा और पहले का बीर्य बाहर निकलेगा। वह क्रम सदा जारी रहेगा। इसलिए भारतीय ऋषियों ने वीर्य को मार्गान्तरित करने की प्रक्रिया बताई है। मार्गान्तरित करने से वीर्य वीर्याशय में कम जाकर ऊपर सहस्रार चक्र में अधिक मात्रा में जाने से साधक ऊर्ध्वरेता बन सकता है। प्रागममाहित्य में साधकों के लिए घोर ब्रह्मचारी शब्द व्यवहृत हया है। तत्त्वार्थराजवातिक में घोर ब्रह्मचारी उसे माना है जिसका वीर्य स्वप्न में भी स्खलित नहीं होता / स्वप्न में भी उसके मन में अशुभ संकल्प पैदा नहीं होते। 166. सूत्रकृतांग 1 / 9 / 12 प. 180 : टोका 167. चरक, सिद्धिस्थान 1. 168. (क) दशवकालिक-अगस्त्यसिंहचणि पृष्ठ 62 (ख) सूत्रकृतांग टीका 1 / 9 / 12. पन्ना 180. 169. रसाद रक्तं ततो मांस, मासान् मेदस्ततोऽस्थि च / अस्थिभ्यो मज्जा ततः शुक्र'........ / -अष्टांगहृदय अ. 3, श्लोक 6. [ 58 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org