________________ इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्ययन में जो वर्णन है, उसकी प्रतिच्छाया वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त है। उदाहरण के रूप में देखिए 'अहिज्ज बेए परिविस्स विप्पे, पुत्त पडिठप्प गिहंसि जाया ! भोच्चाण भोए सह इत्थियाहि, पारण्णगा होह मुणी पमत्था / / " उ. 1419] तुलना कीजिए 'वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण पुत्र ! पुत्रानिच्छेत् पावनार्थं पितृणाम् / अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो, वनं प्रविश्याश्र मुनिर्बु भूषेत् / / " (शान्तिपर्व-–१७५१६; 27716 जातक-५०११४) "वया ग्रहीया न भवन्ति ताण, भत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं / जाया य पुना न. हवन्ति नाणं, को ग्राम ते अणु मन्नेज्ज एयं // " (उत्तरा, 14 / 12) तुलना कीजिए "वेदा न सच्चा न च वित्तलाभो, न पुत्तलाभन जरं विहन्ति / गन्धे रमे मुञ्चनं आह मन्तो, सकम्मना होति फलपपत्ति / / " (जातक--५०९६६) "इमं च में अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं / ने एवमेव लालप्पमाण, हरा हरति ति कह पमाए ? // " [उत्तरा. 14.15] तुलना कीजिए--- "इदं कृतमिदं कार्य मिदमन्यत् कृताकृतम् / एवमीहासुखासक्तं, मृत्युरादाय गच्छति // " शान्ति. 17520] विस्तारभय से हम उन सभी गाथानों का अन्य ग्रन्थों के आलोक में तुलनात्मक अध्ययन नहीं दे रहे हैं। विशेष जिज्ञासु लेखक का "जैन आगम साहित्यः मनन और मीमामा" ग्रन्थ में तुलनात्मक अध्ययन शीर्षक निवन्ध देखें। भिक्षु : एक विश्लेषण पन्द्रहवें अध्ययन में भिक्षों के लक्षणों का निरूपण है। जिसकी आजीविका केवल भिक्षा हो, वह 'भिक्ष' कहलाता है / सच्चा सन्त भी भिक्षा से आहार प्राप्त करता है तो पाखण्डो साधु भी भिक्षा से ही प्राहार प्राप्त करता है। इसीलिए दोनों ही प्रकार के भिक्षयों की संज्ञा 'भिक्षु' है। जैसे स्वर्ण अपने सदगुणों के कारण कृत्रिम स्वर्ण से पृथक् होता है वैसे ही सद्भिक्षु अपने सद्गुणों के कारण असद्भिक्ष से पृथक होता है / स्वर्ण को जब कसौटी पर कसते हैं तो वह खरा उतरता है। कृत्रिम स्वर्ण, स्वर्ण के सदृश दिखाई तो देता है किन्तु कसौटी पर कसने से अन्य गुणों के अभाव में वह खरा नहीं उतरता है। इसीलिए वह शुद्ध सोना नहीं है। केवल नाम और रूप से सोना, सोना नहीं होता; वैसे ही केवल नाम और वेश से कोई सच्चा भिक्ष नहीं होता / सदगुणों से ही जैसे मोना, मोना होता है वैसे ही मद्गुणों से भिक्ष भी ! संबेग, निर्वेद, विवेक, सुशील संसर्ग, आराधना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org