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________________ है। ये पांचों गाथाएँ मूलकथा से सम्बन्धित नहीं है सम्भव है जैन कथाकारों ने बाद में निर्माण कर यहाँ रखा हो 153 . / पर उसका उन्होंने कोई ठोस आधार नहीं दिया है। प्रस्तुत कथानक में आये हुए संवाद से मिलता-जुलता वर्णन मार्कण्डेय पुराण में भी प्राप्त होता है / वहाँ पर जैमिनि ने पक्षियों से प्राणियों के जन्म आदि के सम्बन्ध में विविध जिज्ञासा प्रस्तुत की हैं। उन जिज्ञासाओं के समाधान में उन्होंने एक संवाद प्रस्तुत किया - भार्गव ब्राह्मण ने अपने पुत्र धर्मात्मा सुमति को कहा --- वत्स ! पहले वेदों का अध्ययन करके गुरु की सेवा-शुश्रुषा कर, गार्हस्थ्य जीवन सम्पन्न कर, यज्ञ आदि कर / फिर पुत्रों को जन्म देकर संन्यास ग्रहण करना, उससे पहले नहीं। 154 सुमति ने पिता से निवेदन किया - पिताजी ! जिन क्रियानों को करने का पाप मुझे आदेश दे रहे हैं, वे क्रियाएँ मैं अनेक बार कर चका है। मैंने विविध शास्त्रों का व शिल्पों का अध्ययन भी अनेक बार किया है। मुझे यह अच्छी तरह से परिज्ञात हो गया है कि मेरे लिए वेदों का क्या प्रयोजन है ? 155 मैंने इस विराट् विश्व में बहुत ही परिभ्रमण किया है। अनेक माता-पिता के साथ मेरा सम्बन्ध हया / सयोग और वियोग की घड़ियाँ भी देखने को मिली। विविध प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव किया। इस प्रकार जन्म-मरण को प्राप्त करते-करते मुझे ज्ञान की अनुभूति हुई है। पूर्व जन्मों को मैं स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ। मोक्ष में सहायक जो ज्ञान है वह मुझे प्राप्त हो चुका है। उस ज्ञान की प्राप्ति के बाद यज्ञ-याग, वेदों की क्रिया मुझे संगत नहीं लगती / अब मुझे प्रात्मज्ञान हो चुका है और उसी उत्कृष्ट ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति होगी।५। भार्गव ने कहा - वत्स ! तू ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ऋषि या देव ने तुझे शाप दिया है, जिससे यह तेरी स्थिति हुई है। 15.. सुमति ने कहा-तात ! मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मण था। मैं प्रतिपल-प्रतिक्षण परमात्मा के ध्यान में तल्लीन रहता था, जिससे अात्मविद्या का चिन्तन मुझ में पूर्ण विकसित हो चुका था। मैं सदा साधना में रत रहता था। मुझे अतीत के लाखों जन्मों की स्मति हो पाई। धर्मत्रयो में रहे हुए मानव को जाति-स्मरण ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। मुझे यह आत्मज्ञान पहले से ही प्राप्त है। इसलिए अब मैं आत्म-मुक्ति के लिए प्रयास करूंगा।'५८ उसके बाद सुमति अपने पिता भार्गव को मृत्यु का रहस्य बताता है। इस प्रकार इस संबाद में वेदज्ञान को निरर्थकता बताकर आत्मज्ञान की सार्थकता सिद्ध की है। प्रस्तुत संवाद के सम्बन्ध में विन्टरनीज का अभिमत है—यह बहुत कुछ सम्भव है--यह संवाद जैन और बौद्ध परम्परा का रहा होगा। उसके बाद उसे महाकाव्य या पौराणिक साहित्य में सम्मिलित कर लिया गया हो ! 156 153, The Verses From 49 to the end of the Chapter Certainly do not belong to origimal legend, But must have been composed by the Jain author. -The Uttaradhyana Sutra, Page-335 154. मार्कण्डेय पुराण-१०/११, 12 155. मार्कण्डेय पुराण-१०/१६, 17 156. मार्कण्डेय पुराण-१०/२७, 28, 29 157. मार्कण्डेय पुराण-१०/३४, 35 158. मार्कण्डेय पुराण-१०१३७, 44 159. The Jainas in the History of Indian Literature, P. 7. [ 55 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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