________________ मध्यम वय ही उपयुक्त है। किये हुए कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है / यज्ञ करना कोई आवश्यक नहीं है। जिस यज्ञ में पशुओं की हिंसा होती है, वह तामस यज्ञ है। तप, त्याग और सत्य ही शान्ति का राजमार्ग है। सन्तान के द्वारा कोई पार नहीं उतरता। धन, जन परित्रायक नहीं हैं, इसलिए प्रात्मा की अन्वेषणा की जाये। उत्तराध्ययन के और महाभारत के पद्यों में अर्थसाम्य ही नहीं शब्दसाम्य भी है। शब्दसाम्य को देखकर जिज्ञासुओं को आश्चर्य हुए बिना नहीं रह सकता / विस्तारभय से हम यहाँ उत्तराध्ययन की गाथाओं और महाभारत के श्लोकों की तुलना प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। संक्षेप में संकेत मात्र दे रहे हैं। साथ ही उत्तराध्ययन और जातककथा में पाये हुए कुछ पद्यों का भी यहाँ संकेत सूचित कर रहे हैं, जिससे पाठको को तुलनात्मक अध्ययन करने में सहूलियत हो / '' प्रस्तुत अध्ययन की 44 और 45 वी गाथा में जो वर्णन है, वह वर्णन जातक के अठारहवें श्लोक में दी गई कथा से जान सकते हैं। वह प्रसंग इस प्रकार है --- जब पुरोहित का सम्पूर्ण परिवार प्रवजित हो जाता है, राजा उसका सारा धन मंगवाता है। रानी को परिज्ञात होने पर उसने राजा को समझाने के लिए एक उपाय किया। राजप्रांगण में कसाई के घर से मांस मंगवा कर चारों ओर बिखेर दिया। सोधे मार्ग को छोड़कर सभी तरफ जाल लगवा दिया। मांस को देखकर दूर-दूर से गद्ध प्राये। उन्होंने भरपेट मांस खाया। जो गिद्ध समझदार थे, उन्होने सोचा- हम मांस खाकर बहुत ही भारी हो चुके हैं, जिससे हम सीधे नहीं उड़ सकेंगे। उन्होंने खाया हया मांस बमन के द्वारा बाहर निकाल दिया। हल्के होकर सीधे मार्ग से उड़ गये, वे जाल में नहीं फंसे / पर जो गिद्ध बुद्ध थे, वे प्रसन्न होकर गिद्धों के द्वारा वमित मांस को खाकर अत्यधिक भारी हो गये। वे गिद्ध सीधे उड़ नहीं सकते थे। टेहे-मेढ़े उड़ने से वे जाल में फंस गये। उन फंसे हुए गिद्धों में से एक गिद्ध महारानी के पास लाया गया। महारानी ने राजा से निवेदन किया--आप भी गवाक्ष से राजप्रांगण में गिद्धों का दृश्य देखें। जो गिद्ध खाकर वमन कर रहे हैं, वे अनन्त आकाश में उड़े जा रहे हैं और जो खाकर वमन नहीं कर रहे हैं, वे मेरे चंगुल में फंस गये है। 52 सरपेन्टियर ने प्रस्तुत अध्ययन की उनपचास से तिरेपनवी गाथानों को मूल नहीं माना है। उनका अभिमत 150. उत्तराध्ययन, अध्य. 14, गाथा-४, महाभारत-शान्तिपर्व, अ. 175, श्लोक-२३, उत्तरा. अ. 14, गा. 9, महा. शान्ति. अ. 175, श्लोक. 6, उत्तरा. 14, गा. 12 महा. शान्ति, अ. 175, श्लोक-७१, 18, 25 26, 36; उत्तरा. 14, गा. 15, महाभारत शा. 175, पू. 20, 21, 22, उ. 14, गा. १७,महा. अ. 175, पू. 37, 38, उ. 14 मा. 21, महा. अ. 175 पू. 7, उत्तरा. 14, गा. 22, महा. अ. 175, श्लोक 8, उ. 14 गा. 23, महा. अ. 175, श्लोक 9, उत्तरा. 14 गा. 25, महा. अ. 175 श्लोक 10, 11, 12; उत्तरा. 14 गा. 28, महा. अ. 175 श्लोक 15; उ, 14 गा. 37, म. प्र. 17 श्लोक 39. 151. उत्तरा. प्र. 14 गा. 9, हस्तीपाल जातक संख्या-५०९. गा. 4; उत्तरा. अ. 14 गा. 12, हस्ती. जा. सं. 501 गा. 5; उत्तरा. अ. 14 गा. 13, हस्ती. सं. 509 गा. 11; उत्तरा. अ. 14 गा. 15, हस्ती. सं. 509 गा. 12; उत्तरा. अ. 14 गा. 20, हस्ती. सं. 509 गा. 10; उत्तरा. अ, 14 गा. 27, हस्ती. सं. 509 गा. 7; उत्तरा. अ. 14 गा. 38, हस्ती. सं. 509 गा. 18; उत्तरा. अ. 14 मा. 40, हस्ती. सं. 509 गा. 20 / 152. जातक संख्या 509, ५वां खण्ड, पृष्ठ 75. [.54 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org