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________________ सत्ताईसवां अध्ययन : खलुकीय] [461 परियंति समंतप्रो-वे कुशिष्य वैसे तो चारों ओर भटकते या घूमते रहते हैं, किन्तु हमारे पास यह सोचकर नहीं रहते कि इनके पास रहेंगे तो इनका काम करना पड़ेगा, यों सोचकर वे हम से दूर-दूर रहते हैं।' वाइया संगहिया चेव - इन्हें सूत्रवाचना दी, शास्त्र पढ़ाकर विद्वान् बनाया, इन्हें अपने पास रक्खा तथा स्वयं ने इन्हें दीक्षा दी / कि मज्झ दुट्ठसीसेहि--ऐसे दुष्ट-अविनीत शिष्यों से मुझे क्या लाभ ? अर्थात्-मेरा कौन सा इहलौकिक या पारलौकिक प्रयोजन सिद्ध होता है ? उलटे, इन्हें प्रेरणा देने से मेरे काय (आत्म-कर्तव्य) में हानि होती है और कोई फल नहीं / फलितार्थ यह निकलता है कि इन कुशिष्यों का त्याग करके मुझे स्वयं उद्यतविहारी होना चाहिए / यही गााचार्य के चिन्तन का निष्कर्ष है / 3 कुशिष्यों का त्याग करके तपःसाधना में संलग्न गार्याचार्य 16. जारिसा मम सोसाउ तारिसा गलिगद्दहा। ___ गलिगद्दहे चइत्ताणं वढं परिगिण्हइ तवं / / [16] जैसे गलिगर्दभ (आलसी और निकम्मे गधे) होते हैं, वैसे ही ये मेरे शिष्य हैं। (ऐसा सोचकर गााचार्य ने) गलिगर्दभरूप शिष्यों को छोड़ कर दृढ तपश्चरण (उग्र बाह्याभ्यन्तर तपोमार्ग) स्वीकार किया। 17. मिउमद्दवसंपन्ने गम्भीरे सुसमाहिए। विहरइ महिं महप्पा सोलभूएण अप्पणा // –त्ति बेमि। [17] (उसके पश्चात्) मृदु और मार्दव से सम्पन्न, गम्भीर, सुसमाहित एवं शीलभूत (चारित्रमय) आत्मा से युक्त होकर वे महात्मा गार्याचार्य (अविनीत शिष्यों को छोड़कर) पृथ्वी पर (एकाकी) विचरण करने लगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन गलिगर्दभ से उपमित कुशिष्य—गााचार्य के द्वारा 'गलिगर्दभ' शब्द का प्रयोग उक्त शिष्यों की दुष्टता एवं नीचता बताने के लिए किया गया है / प्रायः गधों का यह स्वभाव होता है कि मंदबुद्धि होने के कारण बार-बार अत्यन्त प्रेरणा करने पर ही वे चलते हैं या नहीं चलते, इसी प्रकार गााचार्य के शिष्य भी बार-बार प्रेरणा देने पर भी सन्मार्ग पर नहीं चलते थे, ढीठ होकर उलटा-सीधा प्रतिवाद करते थे, वे साधना में आलसी और निरुत्साह हो गए थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि 'मेरा सारा समय तो इन्हीं कुशिष्यों को प्रेरणा देने में चला जाता है, अन्य साधना के लिए 1. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. को. भा. 3, पृ. 726 2. वही, भा. 3, पृ. 726 3. वही, भा. 3, पृ. 726 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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