________________ 460] [उत्तराध्ययनसूत्र (अथवा अपलाप करते हैं), यों वे इधर-उधर चारों ओर भटकते रहते हैं / किन्तु गुरु की आज्ञा का राजा के द्वारा ली जाने वाली वेठ (बेगार) की तरह मान कर मुख पर भृकुटि चढ़ा लेते हैं / 14. वाइया संगहिया चेव भत्तपाणे य पोसिया / जायपक्खा जहा हंसा पक्कमन्ति दिसोदिसि / / [14] जैसे पंख आने पर हंस विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं, वैसे ही शिक्षित एवं दीक्षित किये हुए, पास में रखे हुए तथा भक्त-पान से पोषित किये हुए कुशिष्य भी (गुरु को छोड़कर) अन्यत्र (विभिन्न दिशाओं में) चले जाते हैं / 15. अह सारही विचिन्तेइ खलु केहि समागओ। कि मज्श दुट्ठसीसेहि अप्पा मे अवसीयई / [15] ऐसे अविनीत शिष्यों से युक्त धर्मयान के सारथी प्राचार्य खिन्न होकर सोचते हैं-मुझे इन दुष्ट शिष्यों से क्या लाभ ? (इनसे तो) मेरी आत्मा अवसन्न ही होती (दुःख ही पाती) है। विवेचन–इढिगारविए : ऋद्धिगौरविक : आशय-मेरे श्रावक धनाढ्य हैं, अमुक धनिक मेरा भक्त है, मेरे पास उत्तम वस्त्र-पात्रादि हैं, इस प्रकार कोई अपनी ऋद्धि-अहंकार से युक्त है। रसगारविए-किसी शिष्य को यह गर्व है कि मैं सरस स्वादिष्ट आहार पाता हूँ या सेवन करता हूँ / इस कारण वह न तो रुग्ण या वृद्ध साधुओं के लिए पाहार लाता है और न तपस्या करता है। सायागारविए-किसी को सुखसुविधाओं से सम्पन्न होने का अहंकार है, इस कारण वह एक ही स्थान पर जमा हुआ है, अन्यत्र विहार नहीं करता, न परीषह सहन कर सकता है / थद्ध-कोई स्तब्ध यानी अभिमानी है, हठाग्रही है, उसे कदाग्रह छोड़ने के लिए मनाया या नम्र किया नहीं जा सकता। ___ओमाणभीरुए-अपमानभीरु होने के कारण अपमान के डर से किसी के यहाँ भिक्षा के लिए नहीं जाता। साहू अन्नोऽत्थवच्चउ दूसरा कोई चला जाए (अर्थात् कोई कहता है क्या मैं अकेला ही अापका शिष्य हूँ, जिससे हर काम मुझे ही बताते हैं ? दूसरे बहुत-से शिष्य हैं, उन्हें भेजिए न !' पलिउंचति : दो अर्थ-(१) किसी कार्य के लिए भेजने पर बिना कार्य किये ही वापस लौट आते हैं, अथवा (2) किसी कार्य के भेजने पर वे अपलाप करते हैं, अर्थात्-व्यर्थ के प्रश्नोत्तर करते हैं, जैसे-गुरु के ऐसा पूछने पर कि वह कार्य क्यों नहीं किया ?, वे झूठा उत्तर दे देते हैं कि "उस कार्य के लिए आपने कब कहा था ?" अथवा "हम तो गए थे, लेकिन उक्त व्यक्ति वहाँ मिला ही नहीं।"३ 1. उत्तराध्ययनवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 3, पृ.७२६ 2. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. 284 (ख) उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. को. भा. 3, वृ. 726 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International