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________________ छब्बीसवां अध्ययन : सामाचारी] [47] फिर सब दुःखों से मुक्त करने वाले कायोत्सर्ग का समय होने पर सर्वदुःख-विमुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। 48. राइयं च अईयारं चिन्तिज्ज अणुपुव्वसो। नाणंमि दंसणंमी चरित्तमि तवंमि य / / [48] (इसके पश्चात्) ज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा तप में लगे हुए रात्रि-सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे / 49. पारियकाउस्सग्गो वन्दित्ताण तओ गुरु। राइयं तु अईयारं आलोएज्ज जहक्कम // [46] कायोत्सर्ग को पूर्ण करके गुरु को वन्दना करे, फिर अनुक्रम से रात्रि-सम्बन्धी (कायोत्सर्ग में चिन्तित) अतिचारों को (गुरु के समक्ष) आलोचना करे / 50. पडिक्कमित्तु निस्सल्लो वन्दित्ताण तओ गुरु / काउस्सग्गं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं // [50] तत्पश्चात् प्रतिक्रमण कर निःशल्य होकर गुरुवन्दना करे, फिर सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे / 451. किं तवं पडिवज्जामि एवं तत्थ विचिन्तए / काउस्सग्गं तु पारिता वन्दई य तमो गुरु / [51] कायोत्सर्ग में ऐसा चिन्तन करे कि मैं (आज) किस तप को स्वीकार करूं ? कायोत्सर्ग को समाप्त (पारित) कर गुरु को वन्दना करे / 52. पारियकाउस्सग्गो वन्दिताण तओ गुरु / तवं संपडिवज्जेत्ता करेज्ज सिद्धाण संथवं // [52] कायोत्सर्ग पूर्ण होते ही गुरुवन्दन करके यथोचित तप को स्वीकार करके सिद्धों की स्तुति करे। विवेचन-कायोत्सर्ग, स्वाध्याय और प्रतिक्रमण---रात्रि के चार प्रहर में नियंत कार्यक्रम का पुनः 44 वीं गाथा द्वारा उल्लेख करके चतुर्थ प्रहर के वैरात्रिक काल का प्रतिलेखन कर स्वाध्यायकाल को भलीभांति समझ कर असंयमी (गृहस्थों) को नहीं जगाता हुअा मौनपूर्वक स्वाध्याय करे / फिर चतुर्थ प्रहर का चौथा भाग शेष रहने पर गुरुवन्दन करके वैरात्रिक काल (के कार्यक्रम) का प्रतिक्रमण करे और प्राभातिक काल का प्रतिलेखन करे (अर्थात् काल ग्रहण करे)। यहाँ मध्यम क्रम की अपेक्षा से तीन काल ग्रहण किये हैं, अन्यथा उत्सर्गमार्ग में जघन्य तीन और उत्कृष्ट चार कालों के ग्रहण का विधान है, अपवादमार्ग में जघन्य एक और उत्कृष्ट दो कालों के ग्रहण का विधान है। तदनन्तर पुनः (प्राभातिक) कायोत्सर्ग का काल प्राप्त होने पर सर्वदुःख-विमोचक कायोत्सर्ग करे / प्रस्तुत में तीन कायोत्सर्ग (रात्रिप्रतिक्रमण सम्बन्धी) विहित हैं। प्रथम कायोत्सर्ग में रत्नत्रय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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