________________ 452] [उत्तराध्ययनसूत्र ज्ञान के 14 अतिचार--व्याविद्ध, व्यत्यानेडित, हीनाक्षर, प्रत्यक्षर, पदहीन, विनयहीन, योगहीन, घोषहीन, सुष्ठुदत्त, दुष्टुप्रतीच्छित, अकाल में स्वाध्याय किया, काल में स्वाध्याय न किया, ये 14 ज्ञान में लगने वाले अतिचार (दोष) हैं / दर्शन के 5 अतिचार--शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्डिप्रशंसा और परपाषण्डिसंस्तव, ये दर्शन (सम्यग्दर्शन) के 5 अतिचार हैं। चारित्र के अतिचार--५ महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति तथा अन्यविहित कर्तव्यों में जो भी अतिचार हैं, वे चारित्रिक अतिचार हैं। इसमें शयनसम्बन्धी, भिक्षाचरीसम्बन्धी, प्रतिलेखनसम्बन्धी तथा स्वाध्यायसम्बन्धी एवं गमनागमनसम्बन्धी (ऐर्यापथिक) प्रतिक्रमण भी पा जाता है। __ यों अतिचारों का चिन्तन, फिर कायोत्सर्ग करके गुरु को द्वादशावर्त बन्दन, तदनन्तर दिवससम्बन्धी चिन्तित अतिचारों की गुरु के समक्ष आलोचना करे—इसमें गुरु के समक्ष दोषों का प्रकटीकरण, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा, क्षमापना, प्रायश्चित्त इत्यादि प्रतिक्रमण के सब अंगों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण करके निःशल्य, शुद्ध होकर गुरुवन्दना करके फिर कायोत्सर्ग करे, तत्पश्चात् पुनः गुरुवन्दन करके सिद्धस्तव (चतुर्विंशतिस्तव) रूप स्तुतिमंगल करके 'नमोत्थु णं' बोल कर प्रादोषिक काल की प्रतिलेखना करे / यह हुआ समग्र देवसिक प्रतिक्रमण का सांगोपांग क्रम / ' रात्रिक चर्या और प्रतिक्रमण 44. पढमं पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई। __ तइयाए निद्दमोक्खं तु सज्झायं तु चउथिए / [44] (रात्रि के) प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे / 45. पोरिसीए चउत्थोए कालं तु पडिलेहिया / सज्झायं तो कुज्जा अबोहेन्तो असंजए // [45] चौथे प्रहर में काल का प्रतिलेखन कर असंयत व्यक्तियों को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे। 46. पोरिसीए चउभाए बन्दिऊण तओ गुरु / __ पडिक्कमित्तु कालस्स कालं तु पडिलेहए / / [46] चतुर्थ पौरुषी के चौथे भाग में गुरु को वन्दना कर काल का प्रतिक्रमण करके काल का प्रतिलेखन करे। 47. आगए कायवोस्सग्गे सव्वदुक्खविमोक्खणे। ___काउस्सग्गं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं / 1. उत्तराध्ययन (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 217-218 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org