________________ 454] [उत्तराध्ययनसूत्र में लगे अतिचारों का चिन्तन, फिर उनकी आलोचना तथा तीसरे कायोत्सर्ग में तपश्चरण का विचार करे। कायोत्सर्ग के 'सव्वदुक्खविमोक्खणं' विशेषण का अभिप्राय यह है कि कायोत्सर्ग महान् निर्जरा का (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप एवं वीर्य की और परम्परा से आत्मा की शुद्धि का) कारण है / इसलिए इसे पुन: पुनः करने का विधान है। शुद्ध चिन्तन के लिए एकाग्रता जरूरी है और कायोत्सर्ग में एकाग्रता आ जाती है, शरीर और शरीर से सम्बन्धित समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थों का व्युत्सर्ग करने के बाद एकमात्र आत्मा ही साधक के समक्ष रहती है, इसलिए आत्मलक्षी चिन्तन इससे हो जाता है। कायोत्सर्ग के पश्चात्-प्रत्याख्यान आवश्यक पाता है। इस दृष्टि से यहाँ तप को स्वीकार करने के चिन्तन का उल्लेख है। चिन्तन में अधिक से अधिक 6 मास से लेकर नीचे उतरते-उतरते अन्त में नौकारसी तप तक को स्वीकार करने का कायोत्सर्ग में चिन्तन करे और जो भी संकल्प हुआ हो, तदनुसार गुरुदेव से उस तप को ग्रहण करे / ' उपसंहार 53. एसा सामायारी समासेण वियाहिया। जं चरित्ता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं / / ___--ति बेमि / [53] संक्षेप में, यह (साधु-) सामाचारी कही है, जिसका आचरण करके बहुत-से जीव संसारसमुद्र को पार कर गए हैं। ___ --ऐसा मैं कहता हूँ। सामाचारी:छन्वीसवाँ अध्ययन समाप्त / 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 217-218 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org