________________ 450 [उत्तराध्ययनसूत्र आदि के जीवों की रक्षा के लिए आहारत्याग करना आवश्यक है, (5) उपवास आदि तपस्या के समय आहारत्याग आवश्यक है, (6) शरीर का व्युत्सर्ग करने हेतु आयुष्य की समाप्ति पर शरीर का त्याग करने हेतु उचित समय पर अनशन करते समय / इन 6 कारणों से आहार नहीं करना चाहिए / अर्थात् 6 कारणों से भक्त-पान की गवेषणा नहीं करनी चाहिए।' विहारं विहरए-व्यवहारभाष्य की वृत्ति में 'विहारभूमि' का अर्थ किया गया है—'भिक्षाभूमि / इसीलिए प्रस्तुत प्रसंग में 'विहारं विहरए' का अर्थ किया गया है--भिक्षा के निमित्त पर्यटन करे / बृहद्वृत्ति में विहार का अर्थ--प्रदेश (क्षेत्र) किया है, क्योंकि उसका सम्बन्ध अर्द्ध योजन (दो कोस) तक ग्राहार-पानी की गवेषणा के लिए पर्यटन के साथ जोड़ा गया है / भिक्षाभूमि में जाते समय सोपकरण जाए या निरुपकरण ? –ोधनियुक्ति में इस सम्बन्ध में यह मत व्यक्त किया गया है कि मुनि सभी उपकरणों को साथ में लेकर भिक्षा-गवेषणा करे, यह उत्सर्गविधि है / यदि वह सभी उपकरणों को साथ ले जाने में असमर्थ हो तो आचारभण्डक को साथ लेकर जाए, यह अपवादविधि है। प्राचारभण्डक में निम्नोक्त 6 उपकरण पाते हैं-- (1) पात्र, (2) पटल (पल्ला), (3) रजोहरण, (4) दण्डक, (5) कल्पद्वय अर्थात् एक ऊनी और एक सूती चादर और (6) मात्रक (पेशाब आदि के लिए भाजन)। शान्त्याचार्य ने 'अवशेष' का अर्थ समस्त पात्रनिर्योग (पात्र से सम्बन्धित समस्त उपकरण) किया है। विकल्प रूप से समस्त भाण्डक-उपकरण अर्थ किया है।' चतुर्थ पौरुषी का कार्यक्रम 37. चउत्थीए पोरिसीए निविखवित्ताण भायणं / सज्झायं तो कुज्जा सम्वभावविभावणं / / [37] चतुर्थ पौरुषी (प्रहर) में प्रतिलेखना करके सभी पात्रों को (बांध कर) रख दे / तदनन्तर (जीवादि) समस्त भावों का प्रकाशक (अभिव्यक्त करने वाला) स्वाध्याय करे / 38. पोरिसीए चउभाए वन्दित्ताण तमो गुरु / पडिक्कमित्ता कालस्स सेज्जंतु पडिलेहए। __ [38] पौरुषी के चतुर्थ भाग में गुरु को वन्दना करके फिर काल का प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) कर शय्या का प्रतिलेखन करे। 1. (क) स्थानांग. स्थान 6 / 500 वृत्ति (ख) प्रोधनियुक्तिभाष्य, गाथा 293-294 (ग) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. 2, पत्र 215 2. (क) यत्र च महती विहारभूमिभिक्षानिमित्तं परिभ्रमणभूमिः"" (ख) विहरत्यस्मिन् प्रदेश इति विहारस्तम् / 2. (क) प्रोपनियुक्तिभाष्य गाथा 227, वृत्तिसहित (ख) वृति , पत्र 544 -~~-व्यवहारभाष्य 4 / 40 वृत्ति -वह वत्ति, पत्र 544 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org