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________________ छब्बीसवाँ अध्ययन : सामाचारी] [449 रक्षा के लिए, प्राणियों की दया के लिए, तप के लिए तथा शरीर-विच्छेद (व्युत्सर्ग) के लिए मुनि भक्त-पान की गवेषणा न करे। 36. अवसेसं भण्डगं गिज्झा चक्षुसा पडिलेहए। परमद्धजोयणाओ विहारं विहरए मुणी // [36] समस्त उपकरणों का आँखों से प्रतिलेखन करे और उनको लेकर (आवश्यक हो तो) मुनि उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) प्राधे योजन (दो कोस) क्षेत्र (विहार) तक विचरण करे (अर्थात् भक्त-पान की गवेषणा के लिए पर्यटन करे)। विवेचन भक्तपान की गवेषणा के कारण-स्थानांगसुत्र और मूलाचार में भी छह कारणों से आहार करने का विधान है, जो कि भक्त-पान-गवेषणा का फलितार्थ है / मूलाचार में 'इरियङ्काए' के बदले 'किरियट्ठाए' पाठ है। वहाँ उसका अर्थ किया गया है-षड् आवश्यक आदि क्रियाओं का पालन करने के लिए। छह कारणों की मीमांसा करते हुए प्रोपनियुक्ति में कहा गया कि प्रथम कारण इसलिए बताया है कि क्षुधा के समान कोई शरीरवेदना नहीं है, क्योंकि क्षुधा से पीड़ित व्यक्ति वैयावृत्य नहीं कर सकता, क्षुधापीड़ित व्यक्ति आँखों के आगे अंधेरा पा जाने के कारण ईर्या का शोधन नहीं कर सकता है, अाहारादि ग्रहण किये बिना कच्छ और महाकच्छ आदि की तरह वह प्रेक्षा प्रादि संयमों का पालन नहीं कर सकता / पाहार किये विना उसको शक्ति क्षीण हो जाती है / इससे वह गणन (चिन्तन) और अनुप्रेक्षण करने में अशक्त हो जाता है। प्राणवृत्ति अथात् प्राणरक्षण (जीवनधारण) के लिए प्राहार-ग्रहण करना आवश्यक है। प्राण का त्याग तभी किया जाना युक्त है, जब आयुष्य पूर्ण होने का कोई कारण उपस्थित हो, अन्यथा अात्महत्या का दोष लगता है। इसलिए जीवनधारण के लिए ग्राहार करना आवश्यक है। छठा कारण धर्मचिन्ता है / इसका तात्पर्य यह है कि क्षुधादि से दुर्बल हुए व्यक्ति को दुर्ध्यान होना सम्भव है, उससे धर्मध्यान नहीं हो सकता।' भक्तपान-गवेषणा-निषेध के 6 कारण-(१) आतंक ज्वर आदि रोग होने पर, (2) उपसर्ग पाने पर अर्थात-देव, मनुष्य अथवा तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग आया हो तब अथवा व्रतभंग करने लिए स्वजनादि के द्वारा किये गए उपसर्ग के समय, (3) ब्रह्मचर्य की गुप्तियों की रक्षा के लिए, अर्थात् पाहार करने से मन में विकार उत्पन्न होता हो तो आहार का त्याग किये विना ब्रह्मचर्यपालन नहीं हो सकता है, (4) प्राणियों की दया के लिए अर्थात् वर्षा प्रादि ऋतुओं में अप्काय पठाए। 1. (क) स्थानांग. वृत्ति 6 / 500 (ख) बहवत्ति, पत्र 543 (ग) वेयणवेयावच्चे किरियाठाणे य संजमदाए। तवपाणधम्मचिंता कूज्जा एवेहि प्राहारं // --मुलाचार 6 / 60 वृत्ति (घ) नत्थि छुहाए सरिसया, वेषण भुजेज्ज तप्प-समणट्ठा / छायो वेयावच्चं, न तरइ काउं अओ भुजे / इरियं नवि सोहेइ पेहाईयं च संजमं काउं / थामो वा परिहायइ, गुणणुप्पेहासु य असत्तो॥ –ोघनियुक्ति भाष्य, गाथा 290-291 (उ) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 215 Jain Education International For Private & Personal use Orde www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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