________________ 448] [उत्तराध्ययनसूत्र प्रस्फोटन और प्रमार्जन के शास्त्रोक्त प्रमाण में शंका के कारण हाथ की अंगुलियों की पर्वरेखाओं से गिनती करना / ' प्रतिलेखना : शुद्ध-अशुद्ध-अठ्ठाईसवीं गाथा के अनुसार प्रशस्त (शुद्ध) या अप्रशस्त (अशुद्ध) प्रतिलेखना के 8 विकल्प होते हैं—(१) जो प्रतिलेखना (प्रस्फोटन-प्रमार्जन के) प्रमाण से अन्यून, अनतिरिक्त (न कम, न अधिक) और अविपरीत हो, (2) अन्यून, अनतिरिक्त हो, पर विपरीत हो, (3) जो अन्यून हो, किन्तु अतिरिक्त हो, अविपरीत हो, (4) जो न्यून हो, अतिरिक्त हो और विपरीत हो, (5) जो न्यून हो, अनतिरिक्त हो, अविपरीत हो, (6) जो न्यून हो, अनतिरिक्त हो, किन्तु विपरीत हो, (7) जो न्यून हो, अतिरिक्त हो, किन्तु अविपरीत हो, (8) जो न्यून हो, अतिरिक्त हो, और विपरीत भी हो / इसमें प्रथम विकल्प शुद्ध (प्रशस्त) है और शेष 7 विकल्प अशुद्ध (अप्रशस्त) प्रतिलेखना में प्रमत्त और अप्रमत्त:परिणाम-गा. 26-30 में प्रतिलेखना-प्रमत्त के लक्षण और उसे षटकाय-विराधक तथा 31 वी गाथा में प्रतिलेखना-अप्रमत्त के लक्षण एवं उसे षट्काय का आराधक कहा है। तृतीय पौरुषी का कार्यक्रम : भिक्षाचर्या 32. तइयाए पोरिसीए भत्त पाणं गवेसए / छण्हं अन्नयरागम्मि कारणमि समुट्टिए / [32] छह कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर तृतीय पौरुषी (तीसरे पहर) में भक्त-पान की गवेषणा करे। 33. वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए छ8 पुण धम्मचिन्ताए / [33] (क्षुधा-) वेदना (की शान्ति) के लिए, वैयावत्य के लिए, ईर्या (समिति के पालन) के लिए, संयम के लिए तथा प्राण-धारण (रक्षण) करने के लिए और छठे धर्मचिन्तन (-रूप कारण) के लिए भक्त-पान की गवेषणा करे। 34. निग्गन्थो धिइमन्तो निग्गन्थी वि न करेज्ज छहिं चेव / ठाणेहि उ इमेहि अणइक्कमणा य से होइ // [34] धूतिमान् (धैर्यसम्पन्न) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी (साध्वी) इन छह कारणों से भक्तपान की गवेषणा न करे जिससे संयम का अतिक्रमण न हो। 35. आयके उवसग्गे तितिक्खया बम्भचेरगुत्तीसु / पाणिदया तबहेउं सरीर-वोच्छेयणट्ठाए / [35] आतंक (रोग) होने पर, उपसर्ग आने पर, तितिक्षा के लिए, ब्रह्मचर्य की गुप्तियों की 1. (क) उत्तरा. बृहद्वत्ति, पत्र 542 (ख) उत्तरा. (गुजराली भाषान्तर) भा. 2, पत्र 213 2. उत्तरा. (मुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 213 3. उत्तरा. (गु. भाषान्तर,) भा. 2, पत्र 213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org