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________________ छब्बीसवाँ अध्ययन : सामाचारी] [447 छोडकर या शरीर को चंचल नहीं रखना चाहिए / (3) अननुबन्धी-प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को दृष्टि से अलक्षित (प्रोझल) न करे या वस्त्र को अयतना से न झटकाए / (4) अमोसली-धान्यादि कूटते समय ऊपर, नीचे और तिरछे लगने वाले मूसल की तरह प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिरछे दीवार आदि से नहीं लगाना चाहिए। (5) षट्पुरिम-नवस्फोट का (6 पुरिमा, खोड़ा)-प्रतिलेखना में 6 पुरिम और 6 खोड़ करने चाहिए / षट्पुरिम का रूढ़ अर्थ है-वस्त्र के दोनों ओर के तीन-तीन हिस्से करके उन्हें (दोनों हिस्सों को) तीन-तीन बार खंखेरना / झड़काना और नव खोड़ का अर्थ है-स्फोटक अर्थात् प्रमार्जन / वस्त्र के प्रत्येक भाग के 6 खोटक करके दोनों भागों (18 खोटकों) को तीन-तीन बार पूजना। फिर उनका तीन बार शोधन करना और (6) पाणि-प्राण-विशोधन-वस्त्र आदि पर कोई जीव दिखाई दे तो उसका यतनापूर्वक अपने हाथ से शोधन करना चाहिए।' यहाँ 1 दृष्टि प्रतिलेखन, 6 पूर्व (झटकाना) और 18 बार खोटक (प्रमार्जन) करना, यों प्रतिलेखना के कुल 1+6+18 = 25 प्रकार होते हैं। प्रमाद-प्रतिलेखना–२६ वीं गाथा में प्रारभटा आदि प्रतिलेखना के 6 दोष बताए हैं, जो स्थानांगसूत्र के अनुसार प्रमाद-प्रतिलेखना के प्रकार हैं--(१) आरभटा-निर्दिष्ट विधि से विपरीत रीति से या शीघ्रता से प्रतिलेखना करना अथवा एक वस्त्र की प्रतिलेखना दूसरे वस्त्र की प्रतिलेखना में लग जाना, (2) सम्मर्दा—जिस प्रतिलेखना में वस्त्र के कोने मुड़े ही रहें, उनमें सलवटें पड़ी हों अथवा प्रतिलेख्यमान वस्त्रादि पर बैठकर प्रतिलेखना करना, (3) मोसली-जैसे धान्य कूटते समय मूसल ऊपर, नीचे और तिरछे लगता है, उसी प्रकार वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिरछे दीवार या अन्य पदार्थ से लगाना / (4) प्रस्फोटना--धूलिधूसरित वस्त्र की तरह प्रतिलेख्यमान वस्त्र का जोर से झड़काना / (5) विक्षिप्ता–प्रतिलेखना किये हुए वस्त्रों को बिना प्रतिलेखना किये हुए वस्त्रों में मिला देना, अथवा प्रतिलेखना करते हुए वस्त्र के पल्ले को इधर-उधर फेंकते रहना या वस्त्र को इतना अधिक ऊँचा उठा लेना कि भलीभांति प्रतिलेखना न हो सके / (6) वेदिका–प्रतिलेखना करते समय दोनों घुटनों के ऊपर, नीचे, बीच में या पार्श्व में या दोनों घुटनों को दोनों हाथों के बीच में या एक जानु को दोनों हाथों के बीच में रखना वेदिका-प्रतिलेखना है। इसी दृष्टि से वेदिका-प्रतिलेखना के 5 प्रकार बताए गए हैं—(8) ऊर्ध्ववेदिका, (2) अधोवेदिका, (3) तिर्यक्वेदिका, (4) उभयवेदिका और (5) एकवेदिका / सात प्रतिलेखना-प्रविधि-२४वीं गाथा में उक्त प्रतिलेखनाविधि को लेकर यहाँ सात प्रकार की प्रतिलेखना-प्रविधि बताई है--(१) प्रशिथिल-वस्त्र को ढीला पकड़ना, (2) प्रलम्ब-वस्त्र को इस तरह पकड़ना कि उसके कोने नीचे लटकते रहें, (3) लोल-प्रतिलेख्यमान वस्त्र का भूमि से या हाथ से संघर्षण करना, (4) एकामर्शा--वस्त्र को बीच में से पकड़ कर एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख जाना, (5) अनेक रूप धूनना-वस्त्र को अनेक बार (तीन वार से अधिक) झटकना, अथवा अनेक वस्त्रों को एक साथ एक ही बार में झटकना, (6) प्रमाणप्रमाद---प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण (6-6 बार) बताया है, उसमें प्रमाद करना और (7) गणनोपगणना१. (क) उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 542 (ख) स्थानांग, स्थान 6 / 503 2. (क) बही, स्थान 6 / 503 (ख) उत्तरा. बृहदवत्ति, पत्र 542 (ग) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भाग 2, पत्र 212 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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