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________________ 446] [उत्तराध्ययनसूत्र भावप्रतिलेखन (अपने मन में उठने वाले शुभाशुभ भावों का सम्प्रेक्षण करना) भी शास्त्रविहित है / प्रतिलेखन के साथ प्रमार्जन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रस्तुत अध्ययन की पूर्व गाथाओं में क्षेत्रप्रतिलेखन और कालप्रतिलेखन के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा चुका है / द्रव्यप्रतिलेखन के सन्दर्भ में पात्र आदि उपकरणों के प्रतिलेखन के विषय में भी कहा जा चुका है। अब यहाँ गाथा 23 से 31 तक मुख्यतया वस्त्रप्रतिलेखन से सम्बन्धित विधि-निषेध का निरूपण किया गया है / प्रोपनियुक्ति के अनुसार विचार करने पर गा. 23 पात्रप्रतिलेखन से सम्बन्धित प्रतीत होती है। प्रस्तुत गाथा में पात्र से सम्बन्धित तीन उपकरणों (मुखवस्त्रिका, गोच्छग और वस्त्र (पटल-पल्ला आदि) का उल्लेख है, जबकि अोधनियुक्ति में पात्र से सम्बन्धित सात उपकरणों (पात्रनिर्योग-पात्रपरिकर) का निर्देश है---(१) पात्र, (2) पात्रबन्ध (पात्र को बांधने का वस्त्र), (3) पात्रस्थापन (पात्र को रज आदि से बचाने का उपकरण), (4) पात्रकेसरिका (पात्र की मुखवस्त्रिका), (5) पटल (पात्र को ढांकने का पल्ला), (6) रजस्त्राण (चूहों, जीवजन्तुओं, रज या वर्षा के जल कण से बचाव के लिए उपकरण) और (7) गोच्छग (पटलों का प्रमार्जन करने की ऊन की प्रमार्ज निका)। पात्र सम्बन्धी इन मुख्य तीन उपकरणों के प्रतिलेखन का क्रम इस प्रकार बताया गया है-(१) प्रथम मुखवस्त्रिका (पात्रकेसरिका) का, (2) तत्पश्चात् गोच्छग का और (3) फिर अंगुलियों से गोच्छग पकड़ कर पटल प्रादि पात्र सम्बन्धी वस्त्रों का प्रतिलेखन करना। __वस्त्रप्रतिलेखनाविधि-(१) उड्ढं-उकड़ आसन से बैठकर वस्त्रों को भूमि से ऊँचा रखते हुए प्रतिलेखन करना, (2) थिरं-वस्त्र को दृढ़ता से स्थिर (पकड़े) रखना, (3) अतुरियं--उपयोगशून्य होकर जल्दी-जल्दी प्रतिलेखना न करना, (4) पडिलेहे-वस्त्र के तीन भाग करके उसे दोनों ओर से अच्छी तरह देखना, (5) पप्फोड़े-देखने के बाद उसे यतना से धीरे-धीरे झड़काना चाहिए और (6) पमज्जिज्जा-झड़काने के बाद वस्त्र आदि पर लगे हुए जीव को यतना से प्रमार्जन कर हाथ में लेना और एकान्त में यतना से परठना चाहिए / प्रस्तुत गाथा में इन 6 को मुख्य तीन अंगों में विभक्त कर दिया है--(१) प्रतिलेखना-वस्त्रों का आँखों से निरीक्षण करना, (2) प्रस्फोटना-- (झड़काना) और (3) प्रमार्जना (गोच्छग से पूजना)। अप्रमाद-प्रतिलेखना-२५ वी गाथा में वस्त्रप्रतिलेखना में सावधानी रखने के अनतित आदि 6 प्रकार बतलाए गए हैं, उन्हें स्थानांगसूत्र में अप्रमाद-प्रतिलेखना के प्रकार बताए गए हैं। उन 6 का लक्षण इस प्रकार है-(१) अतित-प्रतिलेखना करते समय शरीर और वस्त्र को इधर-उधर नचाए नहीं, (2) अवलित-प्रतिलेखना करते समय वस्त्र कहीं से मुड़ा हुआ न हो, प्रतिलेखना करने वाले को भी अपने शरीर को बिना मोड़े सीधे बैठना चाहिए / अथवा प्रतिलेखन करते समय वस्त्र (ख) 'भायणं पडिलेहए'–अ. 26, गा 22 (घ) 'संपिक्खए अप्पगमपएण'–दशव., अ. 10 1. (क) 'कालं पडिलेडित्ता..'--अ.२६, गा,२० (ग) वत्थाई पडिलेहए'- प्र. 26, गा. 23 2. (क) उत्तरा, मूलपाठ अ. 26, गा. 23 (ख) पत्तपत्ताबंधो, पायट्रवणं च पायकेसरिया / पडलाइ रयत्ताणं च, गोच्छयो पायनिज्जोगो // 3. (क) उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 540-542 (ख) स्थानांग , स्थान 61503 -अोपनियुक्ति, गा, 674 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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