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________________ छब्बीसवाँ अध्ययन : सामाचारी] 26. आरभडा सम्मदा बज्जेयव्वा य मोसली तइया / पप्फोडणा चउत्थी विक्खित्ता वेइया छट्ठा // 27. पसिढिल-पलम्ब-लोला एगामोसा अणेगरूवधुणा / कुणइ पमाणि पमायं संकिए गणणोवगं कुज्जा // [26-27] (प्रतिलेखन के 6 दोष इस प्रकार हैं-) (1) प्रारभटा (2) सम्मर्दा (3) मोसली (4) प्रस्फोटना (5) विक्षिप्ता (6) वेदिका (7) प्रशिथिल (8) प्रलम्ब (8) लोल (10) एकामर्शा (11) अनेक रूप धूनना (12) प्रमाणप्रमाद (13) गणनोपगणना दोष / 28. अणूणाइरित्तपडिलेहा अविवच्चासा तहेव य। पढमं पयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्थाई // [28] (प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून, अनतिरिक्त तथा अविपरीत प्रतिलेखना ही शुद्ध होती है। उक्त तीन विकल्पों के 8 विकल्प होते हैं। उनमें प्रथम विकल्प (-भेद) ही शुद्ध (प्रशस्त) है, शेष अशुद्ध (अप्रशस्त) हैं। 29. पडिलेहणं कुणन्तो मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा। देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छद वा // J26] प्रतिलेखन करते समय जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद की कथा करता है, अथवा प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को वाचना देता (पढ़ाता) है या स्वयं अध्ययन करता (पढ़ता) है --- 30. पुढवीआउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाण / पडिलेहणापमत्तो छण्हं पि विराहओ होइ / / [30] वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय; इन षट्कायिक जीवों का विराधक होता है / 31. पुढवी-आउक्काए तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं / पडिलेहणआउत्तो छण्हं आराहओ होइ / / [31] प्रतिलेखना में उपयोग-युक्त (अप्रमत्त) मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय; इन षट्कायिक जीवों का आराधक (रक्षक) होता है / विवेचन-प्रतिलेखन : स्वरूप, विधि, दोष एवं परिणाम–प्रतिलेखन जैन मुनि की चर्या का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका दायरा बहत व्यापक है। साधु को केवल वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि भण्डोपकरणों की ही नहीं, अपने निश्रित जो भी मकान, पट्ट, चौकी, पुस्तकें, शरीर आदि हों, उनका भी प्रतिलेखन करना आवश्यक है। साथ ही क्षेत्रप्रतिलेखन अर्थात्-परिष्ठापनस्थान (स्थण्डिल), आवासस्थान-उपाश्रय, धर्मस्थान आदि स्वाध्याय (विचार) भूमि, विहारभूमि आदि का भी प्रतिलेखन आवश्यक है / कालप्रतिलेखन (स्वाध्यायकाल, भिक्षाचरीकाल, प्रतिलेखनकाल, निद्राकाल, ध्यानकाल आदि का भलीभांति विचार करके प्रत्येक कार्य यथासमय करना) भी अनिवार्य है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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