________________ 444] [उत्तराध्ययनसूत्र 22. पोरिसीए चउभाए वन्दित्ताण तओ गुरु / अपडिक्कमित्ता कालस्स भायणं पडिलेहए। [22] पौरुषी के चतुर्थ भाग में (अर्थात् पौन पौरुषी व्यतीत हो जाने पर) गुरु को वन्दना करके, काल का प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) किये बिना ही भाजन का प्रतिलेखन करे। विवेचन-विशेष दिनकृत्य का संकेत --सूर्योदय के समय पौरुषी का प्रथम चतुर्थभाग शेष रहते भाण्डक का प्रतिलेखन करे / भाण्डक का अर्थ किया है-प्रावृट्वर्षाकल्पादि उपधि / अर्थात् जो उपधि चातुर्मासिक वर्षाकाल के योग्य हो।' ___ अपडिक्कमित्ता कालस्स-२२ वी गाथा में यह बताया गया है कि पौरुषी का चतुर्थभाग शेष रहते अर्थात पादोन पौरुषी में कायोत्सर्ग किये बिना ही भाजन (पात्र)-प्रतिलेखना करे / तात्पर्य यह है-सामान्यतया प्रत्येक कार्य की परिसमाप्ति पर कायोत्सर्ग करने का विधान है। इसलिए यहाँ भी आशंका प्रकट की गई है कि स्वाध्याय से उपरत होने पर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करके दूसरा कार्य प्रारम्भ करना चाहिए; उसका प्रतिवाद करते हुए प्रस्तुत में कहा गया है-काल का प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) किये बिना ही पात्र प्रतिलेखना करे। इसका आशय यह है कि चतुर्थ पौरुषी में फिर स्वाध्याय करना है। प्रतिलेखना का विधि-निषेध 23. मुहपोत्तियं पडिलेहित्ता पडिलेहिज्ज गोच्छगं / ____ गोच्छगलइयंगुलिओ वत्थाई पडिलेहए // [23] मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर गोच्छग (प्रमार्जनी-पूजणी) का प्रतिलेखन करे। अंगुलियों से गोच्छग को पकड़ कर वस्त्रों का प्रतिलेखन करे / 24. उड्ढे थिरं अतुरियं पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे / __ तो बिइयं परफोडे तइयं च पुणो पमज्जेज्जा // [24] (सर्वप्रथम) ऊर्ध्व (उकड़ ) आसन से बैठे तथा वस्त्र को ऊँचा (अर्थात्-तिरछा) और स्थिर रखे और शीघ्रता किये बिना उसका प्रतिलेखन (नेत्र से अवलोकन) करे। दूसरे में वस्त्र को धीरे से झटकारे और तीसरे में फिर वस्त्र का प्रमार्जन करे। 25. अणच्चावियं अवलियं अणाणुबन्धि अमोसलि चेव / छप्पुरिमा नव खोडा पाणीपाणविसोहणं॥ [25] प्रतिलेखना विधि-(प्रतिलेखन के समय वस्त्र या शरीर को) (1) न नचाए, (2) न मोड़े, (3) बस्त्र को दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे, (4) वस्त्र का दीवार आदि से स्पर्श न होने दे, (5) वस्त्र के 6 पूर्व और 6 खोटक करे, (6) कोई प्राणी हो, उसका विशोधन करे / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 540 2. अप्रतिक्रम्य कालस्य, तत्प्रतिक्रमार्थ कायोत्सर्गमविधायैव, चतुर्थपौरुष्यामपि स्वाध्यायस्य विधास्यमानत्वात् / -बृत्ति , पत्र 540 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org