SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 553
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 442] [उत्तराध्ययनसूत्र 18. पढम पोरिसि सज्झायं बीयं साणं झियायई। ___ तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं // [18] प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और द्वितीय प्रहर में ध्यान करे तथा तृतीय प्रहर में निद्रा ले और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे / 19. जं नेइ जया रत्ति नक्खत्तं तंमि नहचउभाए। संपत्ते विरमेज्जा सज्झायं पओसकालम्मि / [16] जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता है, वह (नक्षत्र) जब आकाश के प्रथम चतुर्थ भाग में आ जाता है (अर्थात्--रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होता है); तब वह प्रदोषकाल होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त (विरत) हो जाना चाहिए। विवेचन-पौरुषी शब्द का विश्लेषण और कालमान–'पौरुषी' शब्द पुरुष शब्द से निष्पन्न है / पुरुष शब्द के दो अर्थ होते हैं—पुरुषशरीर और शंकु / फलितार्थ यह हुआ कि पुरुषशरीर या शंकु से जिस काल का माप होता हो, वह पौरुषी है।' पुरुषशरीर में पैर से जानु (घुटने) तक का और शंकु का प्रमाण 24-24 अंगुल होता है। जिस दिन किसी भी वस्तु की छाया वस्तु के प्रमाण के अनुसार होती है, वह दिन दक्षिणायन का प्रथम दिन होता है / युग के प्रथम वर्ष (सूर्य-वर्ष) में श्रावण कृष्णा 1 को शंकु और जानु की छाया अपने ही प्रमाण के अनुसार 24 अंगुल पड़ती है / 12 अंगुल की छाया को एक पाद (पैर) माना गया है। अतः शंकु और जानु की 24 अंगुल की छाया को दो पाद माना गया है। फलितार्थ यह हुआ कि पुरुष अपने दाहिने कान के सम्मुख सूर्यमण्डल को रख कर खड़ा रहे, फिर आषाढ़ी पूर्णिमा को अपने घुटने तक की छाया दो पाद प्रमाण हो, तब एक प्रहर होता है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिए। वर्ष में दो अयन होते हैं-दक्षिणायन और उत्तरायण / दक्षिणायन श्रावण मास से प्रारम्भ होता है और उत्तरायण माघ मास से / दक्षिणायन में छाया बढ़ती है और उत्तरायण में कम होती है / यन्त्र इस प्रकार हैपौरुषी-छाया का प्रमाण षी का छाया प्रमाण पाद अंगुल कुल वृद्धि अंगुल 1. प्राषाढ़ पूणिमा 2- 0 = 2-0 + 6 = 2-6 2. श्रावण पूर्णिमा 2- 4 - 2-4 + 6 = 2-10 मास 1. शंकुः पुरुषशब्देन, स्याद्दे हः पुरुषस्य वा / निष्पन्ना पुरुषात् तस्मात्पौरुषीत्यपि सिद्धयति / --- काललोकप्रकाश 281992 2. चतुर्विशत्यंगुलस्य शंकोश्छाया यथोदिता / चतुर्विशत्यंगुलस्य जानोरपि तथा भवेत् / / स्वप्रमाणं भवेच्छाया, यदा सर्वस्य वस्तुनः / तदा स्यात् पौरुषी, याम्या-मानस्य प्रथमे दिने / -काललोकप्रकाश 28.101, 993 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy