________________ छब्बीसवाँ अध्ययन : सामाचारी] [441 श्रम की चिन्ता न करके एवं स्वाध्याय के साथ जुड़ता है, तब अर्थ होता है-स्वाध्याय को समस्त तपःकर्मों में प्रधान मानकर विना थके या विना मुआए उत्साहपूर्वक करे।' पौरुषी का काल-परिज्ञान 13. प्रासाढे मासे दुपया पोसे मासे चउप्पया। चित्तासोएसु मासेसु तिपया हवइ पोरिसी // [13] आषाढ़ मास में द्विपदा (दो पैर की) पौरुषी होती है, पौष-मास में चतुष्पदा (चार पैर की) तथा चैत्र और आश्विन मास में त्रिपदा (तीन पैर की) पौरुषी होती है / 14. अंगुलं सत्तरत्तेणं पक्खेण य दुअंगुलं / वड्डए हायए वावी मासेणं चउरंगुलं // [14] सात रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक मास में चार अंगुल की वृद्धि और हानि होती है। (अर्थात्-श्रावण से पौष तक वद्धि होती है तथा माघ से आषाढ़ तक हानि होती है / ) 15. प्रासाढबहुलपक्खे भद्दवए कत्तिए य पोसे य / फग्गुण-वइसाहेसु य नायव्वा प्रोमरत्ताओ। [15] प्राषाढ़ मास के कृष्णपक्ष में तथा भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख मास के भी कृष्णपक्ष में न्यून (कम) रात्रियाँ होती हैं / (अर्थात्-इन महीनों के कृष्णपक्ष में एक अहोरात्रि तिथि का क्षय होता है, यानी 14 दिन का पक्ष होता है।) 16. जेट्ठामूले आसाढ-सावणे हि अंगुलेहि पडिलेहा। अहिं बीय-तियंमी तइए दस प्रहिं चउत्थे / [16] ज्येष्ठ (ज्येष्ठमासीय मूलनक्षत्र), प्राषाढ़ और श्रावण-इस प्रथमत्रिक में छह अंगुल; भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक-इस द्वितीयत्रिक में आठ अंगुल तथा मृगशिर, पौष और माघइस तृतीयत्रिक में दस अंगुल और फाल्गुन, चैत्र एवं वैशाख-इस चतुर्थत्रिक में आठ अंगुल की वृद्धि करने से प्रतिलेखन का पौरुषीकाल होता है / औत्सगिक रात्रिचर्या 17. रत्ति पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो। __ तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाएसु चउसु वि // [17] विचक्षण भिक्षु रात्रि के भी चार भाग करे। उन चारों भागों में भी उत्तरगुणों की आराधना करे / 1. बृहद्वत्ति, पत्र 536 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org