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________________ 440] [उत्तराध्ययनसूत्र 12. पढमं पोरिसिं सज्शायं बीयं शाणं शियायई। तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीए सज्झायं // [12] (अर्थात्-दिन के) प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान करे, तीसरे में भिक्षाचर्या करे और चतुर्थ प्रहर में पुन: स्वाध्याय करे। विवेचन---पुग्विल्लंमि चउम्भाए : दो व्याख्याएं-(१) बृहद्वृत्ति के अनुसार-पूर्वदिशा में, अाकाश में चतुर्थभाग में कुछ कम सूर्य के चढ़ने पर अर्थात् --पादोन पोरसी आ जाए तब / अथवा (2) वर्तमान में प्रचलित परम्परा के अनुसार-दिन के प्रथम प्रहर का चतुर्थ भाग / साधारणतया 3 घंटा 12 मिनिट का यदि प्रहर हो तो उसका चतुर्थ भाग 48 मिनट का होता है, किन्तु दिन का प्रहर 33 घंटे का हो, तब उसका चतुर्थ भाग 523 मिनट का होता है / आशय यह है, सूर्योदय होने पर प्रथम प्रहर के चतुर्थ भाग यानी 48 या 523 मिनिट की अवधि तक में वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को प्रतिलेखना क्रिया पूर्ण कर लेनी चाहिए।' दैनिक कृत्य-१२ वीं गाथा में 4 प्रहरों में विभाजित दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करने का निर्देश किया है। इससे पूर्व 8 वीं गाथा में प्रथम प्रहर के चौथे भाग में प्रतिलेखन-प्रमार्जन कार्य से निवृत्त होने का विधान है। इससे फलित होता है कि प्रथम प्रहार के चौथे भाग में प्रतिलेखना से निवृत्त होकर वाचनादि स्वाध्याय करने बैठ जाए, यदि गुरु की आज्ञा स्वाध्याय की हो / यदि उनकी आज्ञा ग्लानादि की वैयावृत्य (सेवा) करने की हो तो वैयावृत्य में संलग्न हो जाए / यदि गुरु-आज्ञा स्वाध्याय की हो तो प्रथम प्रहर में स्वाध्याय के पश्चात् दूसरे प्रहर में ध्यान करे / द्वितीय पौरुषी को अर्धपौरुषी कहते हैं, इसलिए मूलपाठ के अर्थ के विषय में चिन्तन (ध्यान) करना अभीष्ट है, ऐसा वृत्तिकार का कथन है। तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या करे / इसे गोचरकाल कहा गया है, इसलिए भिक्षाचर्या, आहार के अतिरिक्त उपलक्षण से (स्थण्डिलभूमि में मलोत्सर्ग आदि के लिए) बहिर्भूमि जाने आदि का कार्य करें। इसके पश्चात् चतुर्थ प्रहर में पुन: स्वाध्याय का विधान है, लक्षण से प्रतिलेखन प्रादि क्रिया समझ लेनी चाहिए। दिन की यह चविभागीय चर्या श्रौत्सर्गिक है / अपवादमार्ग में इसमें कुछ परिवर्तन भी हो सकता है, अथवा गुरु की आज्ञा वैयावृत्य को हो तो मुख्यता उसी की रहेगी। उससे समय बचेगा तो स्वाध्यायादि भी होगा।' अगिलायओ : विशेषार्थ- यह शब्द वैयावृत्य के साथ जुड़ता है, तब अर्थ होता है--शरीर 1. (क) पुन्विल्लंमि त्ति-पूर्वस्मिश्चतुर्भागे, अादित्ये समुत्थिते-समुद्गते, इह च यथा दशाविकसोऽपि परः पर एवोच्यते, एवं किञ्चिदूनोऽपि चतुर्भागश्चतुर्भाग उक्तः / ततोऽयमर्थ:-बुद्ध या नभश्चतुर्धा विभज्यते / तत्र पूर्वदिक्सम्बद्ध किञ्चिदूननभश्चतुर्भागे यदादित्यः समुदेति तदा, पादोनपौरुष्यामित्युक्त भवति / -बृहद वृत्ति, पत्र 536 (ख) पूर्वस्मिश्चतुर्भागे प्रथमपौरुषीलक्षणे प्रक्रमाद् दिनस्य / ---वही, पत्र 540 2. (क) 'समत्तपडिलेहणाए सज्झाम्रो'-समाप्तायां प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्यायः कर्तव्य: सूत्रपौरुषीत्यर्थः / पादोनप्रहरं यावत् / ---मोघनियुक्ति वृत्ति, पत्र 115 (ख) प्रादित्ये समुत्थिते इव समुत्थिते, बहतरप्रकाशीभवनात्तस्य / - बृहद्वृत्ति, पत्र 536 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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