________________ छन्वीसवाँ अध्ययन : सामाचारी] के समीप अमुक अवधि तक रहने के लिए जाना उपसम्पदा है। 'इतने काल तक मैं आपके पास (अमुक विशिष्ट प्रयोजनवश) रहूँगा', इस प्रकार से उपसम्पदा धारण की जाती है / उपसम्पदा तीन प्रयोजनों से ग्रहण की जाती है—(१) ज्ञान के लिए, (2) दर्शन के लिए और (3) चारित्र के लिए। ज्ञानार्थ उपसम्पदा वह है, जो ज्ञान की वर्तना (पुनरावृत्ति), संधान (त्रुटित ज्ञान को पूरा करने) और ग्रहण-नया ज्ञान सम्पादन करने के लिए की जाती है। दर्शनार्थ उपसम्पदा वह है, जो दर्शन की वर्तना (पुनः पुनः चिन्तन), संधान (स्थिरीकरण) और ग्रहण (शास्त्रों में उक्त दर्शन विषयक चिन्तन का अध्ययन) करने के लिए स्वीकार की जाती है / चारित्रार्थ उपसम्पदा वह है, जो वयावृत्य की, तपश्चर्या की या किसी विशिष्ट साधना की आराधना के लिए अंगीकार की जाती है।' दिन के चार भागों में उत्तरगुणात्मक दिनचर्या 8. पुन्विल्लंमि चउम्भाए प्राइचंमि समुट्ठिए / भण्डयं पडिलेहित्ता वन्दित्ता य तओ गुरुं॥ [-] सूर्योदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के चतुर्थ भाग में भाण्ड–उपकरणों का प्रतिलेखन करके तदनन्तर गुरु को वन्दना करके 9. पुच्छेज्जा पंजलिउडो कि कायव्वं मए इहं ? / इच्छं निओइउं भन्ते ! वेयावच्चे व सज्झाए / [8] हाथ जोड़कर पूछे--इस समय मुझे क्या करना चाहिए ? 'भंते ! मैं चाहता हूँ कि श्राप मुझे वैयावृत्त्य (सेवा) में नियुक्त करें, अथवा स्वाध्याय में (नियुक्त करें / ) 10. वेयावच्चे निउत्तेणं कायव्वं अगिलायओ। सज्झाए वा निउत्तेणं सव्वदुक्खविमोक्खणे // [10] वैयावृत्त्य में नियुक्त किया गया साधक ग्लानिरहित होकर वैयावृत्त्य (सेवा) करे, अथवा समस्त दुःखों से विमुक्त करने वाले स्वाध्याय में नियुक्त किया गया साधक (ग्लानिरहित होकर स्वाध्याय करे / ) 11. दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो / तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउसु वि // [11] विचक्षण भिक्षु दिवस के चार विभाग करे। फिर दिन के उन चार भागों में (स्वाध्याय आदि) उत्तरगुणों की आराधना करे / 1. (क) अच्छणे त्ति प्रासने, प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसविधी अवस्थाने उप-सामीप्येन, सम्पादनं-गमनं'"उपसम्पदइयन्तं कालं भवदन्तिके मयाऽसितव्यमित्येवंरूपा, सा च ज्ञानार्थतादिभेदेन त्रिधा / ---बृहद्वत्ति, पत्र 535 (ख) 'उवसंपया य तिविहा नाणे तह दंसणे चरित अ। दसणनाणे तिविहा, दुविहा य चरित्त अट्टाए // 698 // वत्तणा संधणा चेव, गहणं सुत्तत्थतदुभए। वेयावच्चे खमणे, काले आवक्कहाई अ॥६९९॥ ----यावश्यकनियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org