________________ 438] [उत्तराध्ययनसूत्र से पूछना कि 'मैं यह कार्य करूं या नहीं ?' (4) प्रतिपृच्छना—गुरु द्वारा पूर्वनिषिद्ध कार्य को पुनः करना आवश्यक हो तो पुनः गुरुदेव से पूछना चाहिए कि आपने पहले इस कार्य का निषेध कर दिया था, परन्तु यह कार्य अतीव आवश्यक है, अतः आप आज्ञा दें तो यह कार्य कर लं / इस प्रकार पुनः पूछना प्रतिपृच्छना है / प्रस्तुत में स्वयं करण के लिए प्रापृच्छा (प्रथम बार पूछने) तथा परकरण के लिए प्रतिपृच्छा (पुनः पूछने) का विधान है। (5) छन्दना-स्वयं को भिक्षा में प्राप्त हुए आहार के लिए अन्य साधुओं को निमंत्रण करना कि यह आहार लाया हूँ, यदि आप भी इसमें से कुछ ग्रहण करें तो मैं धन्य होऊँगा / इसी के साथ ही निमंत्रणा' भी भगवती आदि सूत्रों में प्रतिपादित है, जिसका अर्थ हैआहार लाने के लिए जाते समय अन्य साधुओं से भी पूछना कि क्या आप के लिए भी ग्राहार लेता पाऊँ ?' निमंत्रण के बदले प्रस्तुत में 'अभ्युत्थान' शब्द प्रयुक्त है। जिसका अर्थ और है / (6) इच्छाकार-'यदि आपकी इच्छा हो अथवा आप चाहें तो मैं अमुक कार्य करू ?' इस प्रकार पूछना इच्छाकार है, अथवा बड़ा या छोटा साधु कोई कार्य अपने से बड़े या छोटे साधु से कराना चाहे तो उत्सर्गमार्ग में यहाँ बलप्रयोग सर्वथा वजित है। अतः उसे इच्छाकार (प्रार्थना) का प्रयोग करना चाहिए कि अगर आपकी इच्छा हो तो (मेरा) काम आप करें। (7) मिथ्याकार-संयम का पालन करते हुए साधु से कोई विपरीत आचरण हो जाए तो फौरन उस दुष्कृत्य के लिए पश्चात्तापपूर्वक वह 'मिच्छामि दुक्कडं' कहे, यह 'मिथ्याकार' है। (8) तथाकार-गुरु आदि जब शास्त्र-वाचना दें, सामाचारी आदि का उपदेश दें अथवा सूत्र या अर्थ बताएँ अथवा कोई भी बात कहें, तब आप जैसा कहते हैं, वैसा ही अवितथ (-सत्य) है, इस प्रकार उनकी बात को स्वीकार करना 'तथाकार' है। (9) अभ्युत्थान-प्राचार्य, गुरु या स्थविर आदि विशिष्ट गौरवाह साधुओं को आते देख कर अपने ग्रासन से उठना, सामने जा कर उनका सत्कार करना, 'आप्रो–पधारों' कहना अभ्युत्थान सामाचारी है। नियुक्तिकार ने अभ्युत्थान के बदले निमंत्रणा' शब्द का प्रयोग किया है / सामान्य अर्थ में 'अभ्युस्थान' शब्द हो तो उसका अर्थ होगा—'प्राचार्य, ग्लान, रुग्ण, बालक साधु आदि के लिए यथोचित आहार-औषध आदि ला देने का प्रयत्न करना / '' (10) उपसम्पदा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सेवा आदि कारणों से प्रापवादिक रूप में एक गण (या गच्छ) के साधु का दूसरे गण (गच्छ) के प्राचार्य, उपाध्याय, बहुश्रुत, स्थविर, गीतार्थ आदि 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 535 (ख) 'पाणा बलाभियोगो निग्गंथागं न कप्पए काउं / इच्छा पजियवा सेहे रायणिए य तहा // 677 // ' अपवादतस्तु प्राज्ञा-बलाभियोगावपि दुविनीते प्रयोक्तध्यौ, तेन सहोत्सर्गत: संवास एव न कल्पते, बहत्वजनादिकारणप्रतिबद्धतया स्वपरित्याज्येऽयं विधि:---प्रथममिच्छाकारेण युज्यते, अकुर्वन्नाज्ञया पुनर्बलाभियोगेनेति / -आवश्यकनियुक्ति गा. 677 वृत्ति, पत्र 344 (ग) वायणपडिसुणयाए उवएसे सुत्त-प्रत्थ कहलाए / अक्तिहमेअंति तहा, पडिसुणणाए य तहकारो॥ -आवश्यकनियुक्ति गा. 689 (घ) अभीत्याभिमुख्येनोत्थानम्-उद्यमनं अभ्युत्थानम् / तच्च गुरुपूयत्ति सूत्रत्वाद् गुरुपूजायाम् / सा च गौरवार्हाणाम्-प्राचार्य-ग्लानबालादीनां यथोचिताहारभैषजादि सम्पादनम् / इह च सामान्याभिधानेऽप्यभ्युत्थानं निमंत्रणारूपमेव परिग ह्यते / -बृहवृत्ति, पत्र 535 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org