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________________ छग्वीसवाँ अध्ययन : सामाचारी] तिण्णा संसारसागरं-संसार-सागर को तैर गए हैं, अर्थात् मुक्ति पाए हैं, उपलक्षण से संसारसागर तरेंगे और वर्तमान में तरते हैं।' दविध सामाचारी का प्रयोजनात्मक स्वरूप 5. गमणे आवस्सियं कुज्जा ठाणे कुज्जा निसीहियं / आपुच्छणा सयंकरणे परकरणे पडिपुच्छणा // [5] (1) गमन करते (अपने आवासस्थान से बाहर निकलते) समय ('आवस्सियं' के उच्चारणपूर्वक) 'आवश्यकी' (सामाचारी) करे, (2) (अपने) स्थान में (प्रवेश करते समय) ('निसीहिय' के उच्चारणपूर्वक) नषेधिको (सामाचारी) करे, (3) अपना कार्य करने में (गुरु से अनुमति लेना) 'आपृच्छना' (सामाचारी) है और (4) दूसरों के कार्य करने में (गुरु से अनुमति लेना) प्रतिपृच्छना' (सामाचारी) है। 6. छन्दणा दग्वजाएणं इच्छाकारो य सारणे। मिच्छाकारो य निन्दाए तहक्कारो य पडिस्सुए। [6] (5) (पूर्वगृहीत) द्रव्यों के लिए (गुरु आदि को) आमंत्रित करना 'छन्दना' (सामाचारी) है, (6) सारणा (स्वेच्छा से दूसरों का कार्य करने तथा दूसरों से उनको इच्छानुसार कार्य कराने में विनम्र प्रेरणा करने) में 'इच्छाकार' (सामाचारी) है, (7) (दोषनिवृत्ति के लिए प्रात्म-) निन्दा करने में 'मिथ्याकार' (सामाचारी) है और (8) गुरुजनों के उपदेश को प्रतिश्रवण (स्वीकार) करने के लिए 'तथाकार' (सामाचारी) है / 7. अन्भुट्ठाणं गुरुपूया अच्छणे उवसंपदा। एवं दु-पंच-संजुत्ता सामायारी पवेइया / / [7] (8) गुरुजनों की पूजा (सत्कार) के लिए (आसन से उठ कर खड़ा होना) 'अभ्युत्थान' (सामाचारी) है, (10) (किसी विशिष्ट प्रयोजन से) दूसरे (गण के) प्राचार्य के पास रहना, 'उपसम्पदा' (सामाचारी) है। इस प्रकार दश-अंगों से युक्त (इस) सामाचारी का निरूपण किया गया है। विवेचन-दशविध सामाचारी का विशेषार्थ- (1) प्रावश्यकी-समस्त आवश्यक कार्यवश उपाश्रय (धर्मस्थान) से बाहर जाते समय साधु को 'पावस्सिया' कहना चाहिए। अर्थात्-'मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जा रहा हूँ।' इसके पश्चात् साधु कोई भी अनावश्यक कार्य न करे / (2) नैषेधिकी-कार्य से निवृत्त होकर जब वह उपाश्रय में प्रवेश करे, तब 'निसीहिया' (नषेधिकी) का उच्चारण करे, अर्थात् मैं आवश्यक कार्य से निवृत्त हो चुका हूँ। इसका यह भी आशय है कि प्रवृत्ति के समय कोई पापानुष्ठान हुमा हो तो उसका भी निषेध करता (निवृत्त होता) हैं। ये दोनों मुख्यतया गमन और आगमन की सामाचारी हैं, जो गमन-पागमन काल में लक्ष्य के प्रति जागृति के लिए हैं। (3) आपृच्छना---किसी भी कार्य में (प्रथम या द्वितीय बार) प्रवृत्ति के लिए पहले गुरुदेव 1. निग्रन्थाः यतयस्तीर्णाः संसारसागर, मक्ति प्राप्ता इति भावः / उपलक्षणत्वात तरन्ति तरिष्यन्ति चेति सत्रार्थः / –उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. को. भा. 7, पृ. 772 Jain Education International * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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