________________ 432] [उत्तराध्ययनसूत्र चाहता हूँ कि) तुम शीघ्र ही अभिनिष्क्रमण करो (अर्थात्--गहवास छोड़ कर श्रमणत्व अंगीकार करो), जिससे तुम्हें भय के श्रावतॊ वाले संसार-सागर में भ्रमण न करना पड़े। 41. उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई / भोगी भमइ संसारे अभोगी विप्पमुच्चई // 41] भोगों के कारण (कर्म का) उपलेप (बन्ध) होता है, अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता / भोगी संसार में भ्रमण करता है, (जबकि) अभोगी (उससे) विमुक्त हो जाता है / 42. उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मट्टियामगा। दो वि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सो तत्थ लग्गई / / [42] एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके गए / वे दोनों दीवार पर लगे। उनमें से जो गीला था, वह वहीं चिपक गया। (सूखा गोला नहीं चिपका / ) 43. एवं लग्गन्ति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा / विरत्ता उ न लग्गन्ति जहा सुक्को उ गोलओ / / [43] इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और कामलालसा में आसक्त हैं, वे विषयों में चिपक जाते हैं / विरक्त साधक सूखे गोले की भांति नहीं चिपकते / विवेचन-उपलेप-उपलेप-कर्मोपचयरूप बन्ध / अभोगी---भोगों का जो उपभोक्ता नहीं है / मा भमहिसि भयाव?--हे विजयघोष ! तु मिथ्यात्व के कारण घोर संसारसमुद्र में भ्रमण कर रहा है / अतः मिथ्यात्व छोड़ और शीघ्र ही भागवती मुनि दीक्षा ग्रहण कर, अन्यथा सप्तभयरूपी पावर्तों के कारण भयावह संसार-समुद्र में डूब जाएगा / कामलालसा-कामभोगों में लम्पट !" विरक्ति, दीक्षा और सिद्धि 44. एवं से विजयघोसे जयघोसस्स अन्तिए। अणगारस्स निक्खन्तो धम्म सोच्चा अणुत्तरं / / [44] इस प्रकार वह विजयघोष (संसार से विरक्त होकर) जयघोष अनगार के पास अनुत्तर धर्म को सुनकर दीक्षित हो गया / 45. खवित्ता पुवकम्माइं संजमेण तवेण य / जयघोस-विजयघोसा सिद्धि पत्ता अणुत्तरं // -त्ति बेमि [45] (फिर) जयघोष और विजयघोष दोनों मुनियों ने तप और संयम के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की। -ऐसा मैं कहता हूँ। 1. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भाग, 4 पृ. 1422 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org