________________ पच्चीसवां अध्ययन : यज्ञीय] [431 होता है, क्षत्रिय कुल में जन्म लेने मात्र से या शस्त्र बांधने से ही कोई 'क्षत्रिय' नहीं कहला सकता। वैश्य भी कृषि-पशुपालन, वाणिज्य आदि क्रिया से कहलाता है, न कि जन्म से / ' विजयघोष द्वारा कृतज्ञताप्रकाशन एवं गुणगान 36. एवं तु संसए छिन्ने विजयघोसे य माहणे / समुदाय तयं तं तु जयघोसं महामुणि / / _ [36] इस प्रकार संशय मिट जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने महामुनि जयघोष की वाणी को सम्यक् रूप से स्वीकार किया / 37. तुळे य विजयघोसे इणमुदाहु कयंजली। माहणत्तं जहाभूयं सुठ्ठ में उवदंसियं / / {37] सन्तुष्ट हुए विजयघोष ने हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहा-आपने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा उपदर्शन कराया। 38. तुम्भे जइया जन्नाणं तुम्भे वेयविऊ विऊ। जोइसंगविऊ तुब्भे तुब्भे धम्माण पारगा। [38] शाप ही यज्ञों के (सच्चे) याज्ञिक (यष्टा) हैं, आप वेदों के ज्ञाता विद्वान् हैं, प्राप ज्योतिषांगों के वेत्ता हैं. और पाप ही धर्मों (धर्मशास्त्रों) के पारगामी हैं / 39. तुब्भे समत्था उद्धत्तु परं अप्पाणमेव य। तमणुग्गहं करेहऽम्हं भिक्खेण भिक्खु उत्तमा / [36] अाप अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं / अतः उत्तम भिक्षुवर ! भिक्षा स्वीकार कर हम पर अनग्रह कीजिए। विवेचन--जहाभूयं—जैसा स्वरूप है, वैसा यथार्थ स्वरूप / धम्माण पारगा---धर्माचरण में पारंगत / भिक्खेण भिक्षा ग्रहण करके / ' जयघोष मुनि द्वारा वैराग्यपूर्ण उपदेश 40. न कज्ज मज्न भिक्खेण खिप्पं निक्खमसू दिया / मा भमिहिसि भयाव? घोरे संसारसागरे / [40] (जयघोष मुनि--.) मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन (कार्य) नहीं है। हे द्विज ! (मैं 1. उत्तराध्ययन संस्कृतटीका, अभि. रा. कोष भा. 4, पृ. 1421 2. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 4, पृ. 1422 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org