________________ पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय] |429 -28. अलोलुयं मुहाजीवी अणगारं अकिंचणं / असंसत्त गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं // [28] जो (रसादि में) लुब्ध नहीं है, जो मुधाजीवी (निर्दोष भिक्षा से जीवन निर्वाह करता) है, जो गृहत्यागी (अनगार) है, जो अकिंचन है, जो गृहस्थों से असंसक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। 29. जहित्ता पुन्वसंजोग नाइसंगे य बन्धवे / जो न सज्जइ एएहिं तं वयं बूम माहणं / / [26] जो पूर्वसंयोगों को, ज्ञातिजनों की आसक्ति को एवं बान्धवों को त्याग कर फिर ग्रासक्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। विवेचन यमयायाजी ब्राह्मण के लक्षण-१६ वीं गाथा में यज्ञों का मुख यज्ञार्थी कहा गया है, उस प्रात्मयज्ञार्थी को ही जयघोष मुनि ने ब्राह्मण कहा है / उसके लक्षण मुख्यतया ये बताए हैं(१) जो लोक में अग्निवत पूज्य हो, (2) जो स्वजनादि के प्रागमन एवं गमन पर हर्ष या शोक से ग्रस्त नहीं होता, (3) अर्हत्-वचनों में रमण करता हो, (4) स्वर्णसम विशुद्ध हो, (5) राग, द्वेष एवं भय से मुक्त हो, (6) तपस्वी, कृश, दान्त, सुव्रत एवं शान्त हो, (7) तप से जिसका रक्त-मांस कम हो गया हो, (8) जो मन-वचन-काया से किसी जीव की हिसा नहीं करता, (6) जो क्रोधादि वश असत्य नहीं बोलता, (10) जो किसी प्रकार की चोरी नहीं करता, (11) जो मन-वचन-काया से किसी प्रकार का मैथुन सेवन नहीं करता, (12) जो कामभोगों से अलिप्त रहता है (13) जोअनगार, अकिंचन, गृहस्थों में अनासक्त, मुधाजीवी एवं रसों में अलोलुप है और (14) जो पूर्व संयोगों, ज्ञातिजनों और बान्धवों का त्याग करके फिर उनमें आसक्त नहीं होता।' मीमांसकमान्य वेद और यज्ञ आत्मरक्षक नहीं 30. पसुबन्धा सव्ववेया जठं च पावकम्मुणा / न तं तायन्ति दुस्सोलं कम्माणि बलवन्ति हि॥ [30] सभी वेद पशुबन्ध (यज्ञ में वध के लिए पशुओं को बांधने) के हेतुरूप हैं और यज्ञ भी पाप (के हेतुभूत पशुवधादि अशुभ) कर्म से होते हैं / अतः वे (पापकर्म से कृत यज्ञ) ऐसे (दुःशील) अनाचारी का त्राण-रक्षण नहीं कर सकते, क्योंकि कर्म बलवान हैं। विवेचन-कम्माणि बलवंति--पूर्वोक्त प्रकार से हिंसक यज्ञों में किये हुए पशुवधादि दुष्टकर्म के कर्ता को बलात् नरक आदि दुर्गतियों में ले जाते हैं। क्योंकि वेद और यज्ञ में पशुवधादि होने से दुष्कर्म अत्यन्त बलवान् होते हैं / अतः ऐसे यज्ञ करने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता। श्रमण-ब्राह्मणादि किन गुरणों से होते हैं, किनसे नहीं ? 31. न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥ 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 200 से 202 तक 2. उत्तराध्ययनवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 4, पृ.१४२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org