________________ 428] [उत्तराध्ययनसूत्र [20] जो (प्रिय स्वजनादि के) पाने पर आसक्त नहीं होता और (उनके) जाने पर शोक नहीं करता, जो आर्यवचन (अहवाणी) में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं / 21. जायरूवं जहामढें निद्धन्तमलपावगं / राग-द्दोस-भयाईयं तं वयं बूम माहणं // [21] (कसौटी पर) कैसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल (तपा कर शुद्ध) किये हुए जातरूप (स्वर्ण) की तरह जो विशद्ध है, जो राग, द्वेष और भय से रहित (अतीत) है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। 22. तवस्सियं किसं दन्तं अवचियमंस-सोणियं / सुव्वयं पत्तनिधाणं तं वयं बूम माहणं / / [22] जो तपस्वी है (और तीव्र तप के कारण) कृश है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित (कम) हो गया है, जो सुव्रत है और शान्त (निर्वाणप्राप्त) है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। 23. तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे। जो न हिसइ तिविहेणं तं वयं बूम माहणं // [23] जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जान कर उनकी मन, वचन और काय से हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं / 24. कोहा वा जइ वा हासा लोहा बा जइ वा भया। मुसं न वयई जो उ तं वयं बूम माहणं // [22] जो क्रोध से अथवा हास्य से, लोभ से अथवा भय से असत्य भाषण नहीं करता, उसे, हम ब्राह्मण कहते हैं। 25. चित्तमन्तमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं / न गेण्हइ अदत्तं जे तं वयं बम माहणं / / [25] जो सचित्त या अचित्त, थोड़ी या बहुत प्रदत्त (वस्तु को) नहीं ग्रहण करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। 26. दिव्व-माणुस-तेरिच्छं जो न सेवइ मेहुणं / मणसा काय-वक्केणं तं वयं बूम माहणं / / [26] जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का मन से, वचन से और काया से सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं / 27. जहा पोमं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तो काहि तं वयं बूम माहणं / / [27] जिस प्रकार जल में उत्पन्न होकर भी पद्म जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो (कामभोगों के वातावरण में उत्पन्न हुआ मनुष्य) कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org