________________ पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय] [427 विज्जामाहणसंपया सामान्यतया इसका अर्थ होता है-विद्या ब्राह्मणों की सम्पदा है। आरण्यक एवं ब्रह्माण्डपुराण में अंकित अध्यात्मविद्या ही विद्या है। वही ब्राह्मणों की सम्पदा है। क्योंकि तत्त्वज्ञ ब्राह्मण अकिंचन (अपरिग्रही) होने के कारण विद्या ही उनकी सम्पदा होती है / वे आरण्यक में उक्त 10 प्रकार के अहिंसादि धर्मों की विद्या जानते हुए ऐसे हिंसक यज्ञ क्यों करेंगे ? ' सज्झायतवसा गढा- शंका हो सकती है कि विजयघोष आदि ब्राह्मण तो आरण्यक आदि के ज्ञाता थे, फिर उन्हें उनसे अनभिज्ञ क्यों कहा गया? इसी का रहस्य इस 18 वीं गाथा में प्रकट किया गया है। तथाकथित हिंसापरक याज्ञिक ब्राह्मणों का स्वाध्याय (वेदाध्ययन) और तप राख से ढंकी अग्नि की तरह आच्छादित है। आशय यह है कि जसे अग्नि बाहर राख से ढकी होने से ठंडी दिखाई देती है, किन्तु अन्दर उष्ण होती है। वैसे ही ये ब्राह्मण बाहर से तो वेदाध्ययन तथा उपवासादि तपःकर्म आदि के कारण उपशान्त दिखाई देते हैं, मगर अन्दर से वे प्रायः कषायाग्नि से जाज्वल्यमान है। इस कारण जयघोष मुनि के कहने का आशय है कि इस प्रकार के व्राह्मण स्व-पर का उद्धार करने में समर्थ कैसे हो सकते हैं ? 2 बेयसा-वेदसा- यज्ञों का। सच्चे ब्राह्मण के लक्षण 19. जे लोए बम्भणो वुत्तो अग्गी वा महिप्रो जहा / सया कुसलसंदिट्ठ तं वयं बूम माहणं / [16] जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। 20. जो न सज्जइ आगन्तु पव्वयन्तो न सोयई। रमए अज्जवयणमि तं वयं बूम माहणं / / श्रद्धा धृतिरहिसा च, संवरश्च तथा परः। -'पारण्यक ग्रन्थ' स चात्र भावयज्ञस्तमर्थयति---ग्रभिलषतीति यज्ञार्थी : संयमीत्यर्थः / -बहवत्ति, पत्र 525 (ग) नक्षत्राणामष्टाविंशतीना मुख-प्रधान चन्द्रो वर्तते / 'नक्षत्राणामहं शशी।' -गीता-१०।२१ (ध) धर्माणां श्रतचारित्रधर्माणां काश्यपः आदीश्वरो मुखं वर्तते / धर्माः सर्वेऽपि तेनैव प्रकाशिता इत्यर्थः / ___-बृहद्वत्ति, पत्र 526 (ड) काशे भवः काश्य:--रसस्तं पीतवानिति काश्यपस्तदपत्यानि-काश्यपाः / मुनिसबत-नेमिवर्जा जिनाः / -स्थानांग, 7551 (च) 'कासवस्स अणुधम्मचारिणो०' --सूत्रकृतांग 112 / 3 / 20 (छ) बृहद्वृत्ति में उद्धृत आरण्यकपाठ, पत्र 525 1. बृहदवृत्ति, पत्र 526 2. वही, पत्र 525 : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org