________________ 426] [उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन–चार प्रश्नों के उत्तर-विजयघोष द्वारा पूछे गए चार प्रश्नों के उत्तर १६वीं गाथा में, जयघोष मुनि द्वारा इस प्रकार दिये गये हैं (1) प्रथम प्रश्न का उत्तर-वेदों का मुख अर्थात् प्रधानतत्त्व यहाँ अग्निहोत्र बताया गया है / अग्निहोत्र का ब्राह्मण-परम्परा में प्रचलित अर्थ विजयघोष को ज्ञात था, किन्तु जयघोष ने श्रमणपरम्परा की दृष्टि से अग्निहोत्र को वेद का मुख बताया है / अग्निहोत्र का अर्थ है---अग्निकारिका, जो कि अध्यात्मभाव है / दीक्षित साधक को कर्मरूपी इन्धन लेकर धर्मध्यानरूपी अग्नि में उत्तम भावनारूपी धृताहुति देना अग्निहोत्र है। जैसे दही का सारभूत तत्त्व नवनीत है, वैसे ही वेदों का सारभूत तत्त्व आरण्यक है / उसमें सत्य, तप, सन्तोष, क्षमा, चारित्र, आर्जव, श्रद्धा, धृति, अहिंसा और संवर, यह दस प्रकार का धर्म कहा गया है / अतः तदनुसार उपर्युक्त अग्निहोत्र यथार्थ रूप से हो सकता है। इसी अग्निहोत्र में मन के विकार स्वाहा होते हैं। (2) दूसरे प्रश्न का उत्तर--यज्ञ का मुख अर्थात् --उपाय (प्रवृत्ति-हेतु) यज्ञार्थी बताया है / विजयघोष यज्ञ का उपाय ब्राह्मणपरम्परानुसार जानता ही था, जयघोष मुनि ने प्रात्मयज्ञ के सन्दर्भ में अपने बहिर्मुख इन्द्रिय एवं मन को असंयम से हटाकर, संयम में केन्द्रित करने वाले संयमरूप भावयज्ञकर्ता आत्मसाधक को सच्चा यज्ञार्थी (याजक) बताया है। प्रात्मयज्ञ में ऐसे ही यज्ञार्थी की प्रधानता है। (3) तीसरा प्रश्नोत्तर–कालज्ञान से सम्बन्धित है। स्वाध्याय आदि समयोचित कर्तव्य के लिए काल का ज्ञान श्रमण और ब्राह्मण दोनों ही परम्परानों के लिए अनिवार्य था। वह ज्ञान स्पष्टतः होता था--नक्षत्रों से / चन्द्र की हानि-वृद्धि से तिथियों का बोध भलीभांति हो जाता था। अतः मुनि ने यथार्थ उत्तर दिया है, चन्द्र नक्षत्रों में मुख्य है / इस उत्तर की तुलना गीता के इस वाक्य से को जा सकती है-'नक्षत्राणामहं शशी' (मैं नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ)। (4) चतुर्थ प्रश्नोत्तर-धर्मों का मुख अर्थात् श्रुत-चारित्रधर्मों का आदि कारण क्या हैकौन है ? धर्म का प्रथम प्रकाश किससे प्राप्त हुआ? जयघोष मुनि का उत्तर है-धर्मों का मुख (आदिकारण) काश्यप है / वर्तमानकालचक्र में आदि काश्यप ऋषभदेव ही धर्म के आदि-प्ररूपक आदि-उपदेष्टा तीर्थकर हैं / भगवान् ऋषभदेव ने वार्षिक तप का पारणा काश्य अर्थात्-इक्षुरस से किया था, अतः वे काश्यप नाम से प्रसिद्ध हुए। आगे चल कर यही उनका गोत्र हो गया / स्थानांगसूत्र में बताया गया है कि मुनिसुव्रत और नेमिनाथ दो तीर्थंकरों को छोड़ कर शेष सभी तीर्थकर काश्यपगोत्री थे। सूत्रकृतांग से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी तीर्थकर काश्यप (ऋषभदेव) के द्वारा प्ररूपित धर्म का ही अनुसरण करते रहे हैं। इस सन्दर्भ में बृहवृत्तिकार ने आरण्यक का एक वाक्य भी उद्धृत किया है -- 'ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा........।" 1. (क) अग्निहोत्रं हि अग्निकारिका, सा चेयम कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढा सद्भावनाहुतिः / धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनाऽग्निकारिका / / (ख) यज्ञो दशप्रकार: धर्म:.. सत्यं तपश्च सन्तोषः, क्षमा चारित्रमार्जवम् / (क्रमशः) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org